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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४६५ का भेदोपभेद मानना समीचीन नहीं जान पड़ता। इनमें श्लेष, उपमा, अपह्न ति आदि अलग-अलग अलङ्कारों के साथ उत्प्रेक्षा की अवस्थिति का सङ्केत-मात्र मिलता है। अतः, वहाँ उत्प्रेक्षा के साथ अन्य अलङ्कार की संसृष्टि या सङ्कर का ही विचार होना चाहिए।
उत्प्रेक्षा के सर्वाधिक भेदों की कल्पना रुय्यक ने ही की थी। 'अलङ्कारसूत्र' पर टीका करते हुए रुय्यक के टीकाकार जयरथ ने उत्प्रेक्षा के अतिशयमूलक भेदों को गिन कर उसके भेदों की संख्या और भी बढ़ा दी है। उत्प्रेक्षा की सादृश्यमूलकता के साथ उसके अतिशयगर्भ होने की मान्यता आचार्य रुद्रट प्रकट कर चुके थे। उत्प्रेक्षा के औपम्य-गर्भ स्वरूप के साथ उसके अतिशयमूलक-भेद भी स्वीकार्य हैं। अपह्न ति
अपह्न ति उक्ति में अपह्नव की कला पर आधृत अलङ्कार है। निषेधमुखेन विधान में जो विधि की व्यञ्जना होती है, वह निस्सन्देह आकर्षक होती है। ऐसी उक्ति-भङ्गी में अलङ्कारत्व असन्दिग्ध है। पीछे चल कर अपह्नव पर आश्रित अनेक उक्ति-भङ्गियों में अनेक अलङ्कार की कल्पना अलङ्कारशास्त्र में की गयी है। अपह्नति के स्वरूप की कल्पना ही अपह्नवमूलक समग्र अलङ्कार-प्रपञ्च की कल्पना का उत्स है। प्रस्तुत सन्दर्भ में हम अपह्न ति के स्वरूप का विकास-क्रम की दृष्टि से अध्ययन करेंगे।
सर्वप्रथम भामह के 'काव्यालङ्कार' में अपह्न ति का स्वरूप-निरूपण मिलता है। भामह से पूर्व मिथ्याध्यवसाय लक्षण के स्वरूप में अपह्नव की धारणा निहित थी। भामह ने उपमान-उपमेय की धारणा के साथ मिथ्याध्यवसाय के तत्त्व का मिश्रण कर अपह्न ति अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना की।' इस प्रकार भामह के मतानुसार प्रस्तुत का अपह्नव और उसके स्थान पर अप्रस्तुत का स्थापन अपह्न ति का स्वरूप बना। भामह ने अपह्नति में उपमानोपमेय-सम्बन्ध आवश्यक माना । उन्होंने स्पष्टतः कहा कि अपह्न ति में उपमा किञ्चित् अन्तर्गता होती है।
१. मिथ्याध्यवसायेनापह्न तिः।-अभिनव, अभिनव भारती, पृ० ३२१ २. अपह्न तिरभीष्टा च किञ्चिदन्तर्गतोपमा। भूतार्थापह्नवादास्याः क्रियते चाभिधा यथा ॥
-भामह, काव्यालं ० ३,२१
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