________________
अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४६७
आचार्य कुन्तक भी तत्त्वतः अपह्न ुति को सादृश्यमूलक अलङ्कार ही मानते हैं । उन्होंने वर्ण्य वस्तु के स्वरूप का अप्रस्तुत रूपार्पण के लिए अपह्नव प्रस्तुत अलङ्कार का लक्षण माना है । किन्तु, कुन्तक ने उत्प्रेक्षाको अपह्नति का प्राण मानकर उसमें सम्भावना की अनिवार्य स्थिति स्वीकार की है । जयदेव ने अपह्नति-लक्षण में अतथ्य आरोप शब्द का प्रयोग किया । 3 अतथ्य से तात्पर्य तद्भिन्नमात्र का है । विद्याधर, विद्यानाथ, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ, नरसिंह कवि, विश्वेश्वर पण्डित आदि ने भी आरोप शब्द का प्रयोग अपह्न ुति की परिभाषा में किया है । वर्ण्य का अपह्नवपूर्वक अन्य का स्थापन या वर्णनीय के स्वरूप का निषेध कर अन्य रूप का अर्पण अपह्न ुति का सर्वसम्मत लक्षण है ।
आचार्य केशव दास ने मन की बात छिपाकर कहने में अपह्न ुति का सद्भाव माना है । अपह्नव की धारणा को उन्होंने कुछ अस्पष्ट कर दिया । रघुनाथ कवि सच्ची बात छिपाकर झूठी बात का आरोप अपह्न ुति का लक्षण मानते हैं । दास सच्चे धर्म को छिपाकर अन्य धर्म की ( झूठे या अर्धसत्य धर्म की) स्थापना को अपह्न ुति का लक्षण मानते हैं । गोकुल के अनुसार सत्य को झूठ और झूठ को सत्य बना कर कहना अपह्न ुति है । स्पष्टतः, रीतिकाल में परम्परा का ही प्रकारान्तर से अनुमोदन हुआ है ।
आचार्यों की अपह्न तिविषयक मान्यता का सार निम्नलिखित है(क) अपह्न ुति में प्रस्तुत का निषेध तथा अप्रस्तुत की प्रतीति या उसका विधान होता है ।
(ख) इसमें वर्णनीय का निषेध कर किसी अन्य का ( उपमान भिन्न का) अवस्थापन भी हो सकता है ।
(ग) वर्ण्य का निषेध कर प्रकारान्तर से उसी (वर्ण्य की ही ) की प्रतीति अति नहीं होती, वैसे स्थल में रूपक होता है । और उपमानतावच्छेदक की असामानाधिकर्येन आवश्यक है ।
अतः उपमेयतावच्छेदक
प्रतीति
अपह्नति में
१. अन्यदर्पयतु रूपं वर्णनीयस्य वस्तुनः । स्वरूपापह्नवो यस्यामसावपह्न ुतिर्मता
॥
— कुन्तक, वक्रोक्तिजी ० ३,४३
―
२. पूर्ववदुत्प्रेक्षमूलत्वमेव जीवितमस्याः ॥ त्रही, वृत्ति, पृ० ४७५ ३. जयदेव, चन्द्रालोक, ५,२४