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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४ee सह-कथन का उल्लेख किया तथा एक पद से कथन के स्थान पर एक वाक्य से कथन पर बल दिया ।
अग्निपुराणकार ने दण्डी के सहोक्ति-लक्षण को स्वीकार कर भी उनके लक्षण में प्रयुक्त 'गुणकर्मणाम्' के स्थान पर 'तुल्यधर्मिणाम्' पद का प्रयोग किया । इस प्रकार वे धर्मियों का ही सह कथन सहोक्ति में अपेक्षित मानते हैं । L
रुय्यक के अनुसार उपमान और उपमेय में से एक का प्राधान्य से तथा दूसरे का सहार्थ - सम्बन्ध से कथन सहोक्ति है । इसमें दोनों अर्थ प्राकरणिक या अप्राकरणिक होते हैं; पर उनमें से एक क्रिया मुख्यतया सम्बन्ध रखने वाला कर्त्ता होता है और उसका दूसरे अर्थ के साथ कथन होता है । जिसके साथ कथन हो, वह सहार्थ की तृतीया विभक्ति से युक्त पद व्याकरण के नियमानुसार अप्रधान होता है । जिसका किसी के साथ कथन होता है, वह प्रधान अर्थ उपमेयभूत तथा जिसके साथ उसका कथन होता है, वह अप्रधान अर्थ उपमानभूत होता है । इस प्रकार रुय्यक के सहोक्ति-लक्षण का सार यह है कि इसमें एक अर्थ का दूसरे अर्थ के साथ - उपमेय का उपमान के साथ — कथन होता है। ध्यातव्य है कि इसमें उपमानोपमेय-भाव नियत नहीं रहता । दोनों ही अर्थ समानकोटिक ( प्राकरणिक अथवा अप्राकरणिक ) होते हैं; पर सहार्थ की विभक्ति वाला अर्थ अप्रधान होने के कारण उपमान और अन्य विभक्ति वाला प्रधान होने के कारण उपमेय हो जाता है । रुय्यक ने सहोक्ति को अतिशयोक्तिमूला माना है । मम्मट के अनुसार सहोक्ति में सहार्थ अर्थात् 'सह', 'सम', आदि शब्दों के अन्वय से एक पद दो अर्थों का वाचक होता है।
विश्वनाथ, विद्यानाथ, विद्याधर, शोभाकर, अप्पय्यदीक्षित आदि आचार्यो ने रुय्यक की सहोक्ति - परिभाषा को ही स्वीकार किया है ।
इस विवेचन का निष्कर्ष यह है कि सहोक्ति में एक साथ एक पद से दो अर्थों का कथन होता है । एक अर्थ का दूसरे के साथ वर्णन होने के कारण
१. अग्निपुराण, अध्याय ३४४
२. उपमानोपमेययोरेकस्य प्राधान्यनिर्देशेऽपरस्य सहार्थसम्बन्धे सहोक्तिः । -- रुय्यक, अलं० सर्वस्व, सूत्र सं० २९
३. सा सहोक्तिः सहार्थस्य बलादेकं द्विवाचकम् ।
- मम्मट, काव्यप्र० १०,१७०