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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
समासमूला तथा सङ्करसमास-मूला हो सकते हैं। इस प्रकार विशेषणसाम्यनिबन्धना समासोक्ति के पांच भेद हो जाते हैं। रुय्यक ने समासोक्ति के प्रधान तीन भेद स्वीकार किये हैं-(१) शुद्धकार्यसमारोपा, (२) विशेषण-साम्यमूला तथा (३) कार्यविशेषण साम्यमूला ।'' शोभाकर ने कार्य और विशेषण का भेद अनुचित मानकर कार्य को भी तत्त्वतः विशेषण ही माना है। यह मान्यता उचित ही जान पड़ती है। विशेषण के व्यापक अर्थ में कार्य भी आ जाता है। थोड़े-से इस भेद की कल्पना की जा सकती है कि कार्यसमारोप में विशेषण-साम्य उपचरित है और अपरत्र अनुपचरित। पर, यह भेद तात्त्विक नहीं है। कार्यविशेषणसाम्यमूला समासोक्ति के सात भेद मानकर रुय्यक ने शास्त्रीय एवं लौकिक वस्तुओं के पारस्परिक व्यवहार-समारोप के आधार पर अनेक अवान्तर भेद किये हैं। समर्थ्य तथा समर्थक वाक्य-गत होने के आधार पर भी समासोक्ति के भेद कल्पित हैं। वह उत्प्रेक्षामूला भी मानी गयी है। समासोक्ति के अनन्त भेदों की सम्भावना रुय्यक ने स्वीकार की है। अप्रस्तुतप्रशसा
भामह ने अप्रस्तुतप्रशंसा को परिभाषित करते हुए कहा था कि जिस वस्तु का वर्णन अभिप्रेत हो, उस वर्ण्य से भिन्न अन्य वस्तु का, अर्थात् अप्रस्तुत का वर्णन किया जाना अप्रस्तुतप्रशंसा है।४ अप्रस्तुतप्रशंसा में प्रशंसा का अर्थ वर्णन-मात्र है । वर्ण्य को छोड़ अन्य के वर्णन की सार्थकता भी वर्ण्य की प्रतीति में ही होगी। अतः, अप्रस्तुत का वर्णन कर प्रस्तुत का व्यञ्जना से बोध कराना भामह के अप्रस्तुतप्रशंसा-लक्षण का सार है । इस अलङ्कार के लक्षण में भामह ने वर्णन के अर्थ में स्तुति शब्द का प्रयोग किया है।
आचार्य दण्डी ने अप्रस्तुतप्रशंसा के प्रशंसा-पद का अर्थ स्तुति मानकर अप्रस्तुत की स्तुति को अप्रस्तुतप्रशंसा का लक्षण माना ।" इसका जो उदाहरण
१. द्रष्टव्य, रुय्यक, अलं० सर्वस्व पृ० ६२ २. शोभाकर, अलङ्कार रत्नाकर, पृ० ७२ ३. एवमियं समासोक्तिरनन्तप्रपञ्चेत्यनया दिशा स्वयमुत्प्रक्ष्या।
-रुय्यक, अलं०.सर्वस्व पृ० १०८ ४. अधिकारादपेतस्य वस्तुनोऽन्यस्य या स्तुतिः । ___ अप्रस्तुतप्रशंसेति सा चैवं कथ्यते यथा ॥–भामह, काव्यालं० ३, २६ ५. अप्रस्तुतप्रशंसा स्यादप्रक्रान्तेषु या स्तुतिः ।
-दण्डी, काव्यादर्श, २, ३४०