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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४५९. ने इस सम्भावना का प्रयोजन ‘अतिशय' (उत्कर्षाधान या भ्रान्तिज्ञान-निवृत्ति) की सिद्धि में माना था। इस प्रकार अतिशयार्थ उपमेय की उपमान के साथ सम्भावना उत्प्रेक्षा की परिभाषा मानी गयी थी। रुद्रट ने उत्प्रेक्षा में उपमानोपमेय के सद्भाव के कारण जहाँ एक ओर उसे औपम्यगर्भ अलङ्कार माना, वहाँ दूसरी ओर अतिशय की धारणा के सद्भाव के कारण उसे अतिशयमूलक अलङ्कार भी माना। रुद्रट के अनुसार औपम्यगर्भ उत्प्रेक्षा के तीन रूप हैं। प्रथम उत्प्रेक्षा वह है, जहाँ सिद्ध उपमान के साथ अतिशय सादृश्य के कारण उपमेय का अभेद बताया जाय और उपमान के गुण आदि का उपमेय में सम्भव न होने पर उस उपमेय में उसका आरोप किया जाय । स्पष्टतः, इसमें उपमेय में उपमान की सम्भावना का तत्त्व स्वीकृत है । उत्प्रेक्षाः के दूसरे रूप में आचार्य रुद्रट ने उपमेय से सम्बद्ध अन्य उपमेय तथा उपमान से सम्बद्ध अन्य उपमान के बीच सम्भावना के सद्भाव की कल्पना की। उनके अनुसार जहाँ उपमेयस्थ अन्य उपमेय की उपमान से सम्बद्ध अन्य उपमान के तत्त्व के साथ ताद्र प्य की सम्भावना की जाय, वहाँ द्वितीय उत्प्रेक्षा होती है । उत्प्रेक्षा के तीसरे भेद की परिभाषा में कहा गया है कि जहाँ सुन्दर या असुन्दर विशेषण से विशिष्ट उपमेय में किसी अविद्यमान अन्य (उपमान) वस्तु की समता का आरोप किया जाता हो, वहाँ तीसरी उत्प्रेक्षा होती है। इसमें अविद्यमान वस्तु की सम्भावना किसी युक्ति से उपपन्न बतायी जाती है ।
__ अतिशयमूलक उत्प्रेक्षा के भी दो रूपों की कल्पना रुद्रट ने की है। एक में असम्भव क्रिया आदि के सम्भव बताये जाने पर तथा अविद्यमान क्रियादि को विद्यमान बताये जाने पर बल दिया गया है। दूसरे में किसी वस्तु के रूप के स्वाभाविक कारण से भिन्न कारण का आरोप अपेक्षित माना गया है।3।
आचार्य कुन्तक ने भी सम्भावना में उत्प्रेक्षा का सद्भाव स्वीकार कर सम्भावना से सम्भाव्य के अनुमान और सादृश्य को अलग-अलग तथा दोनों
१. द्रष्टव्य, रुद्रट, काव्यालं० ८,३२-३७ २. यत्रातितथाभूते सम्भाव्येत क्रियाद्यसम्भाव्यम् ।
सम्भूतमतद्वति वा विज्ञेया सेयमुत्प्रेक्षा ।।-रुद्रट, काव्यालं० ६, ११ . ३. अन्यनिमित्तवशाद्यद्यथा भवेद्वस्तु तस्य तु तथात्वे ।।
हेत्वन्तरमतदीयं यत्रारोप्येत सान्येयम् (उत्प्रेक्षा)।-वही, ६, १४