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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
वाले इव, सा, सी आदि शब्द सम्भावना-सूचक होने के कारण उत्प्रेक्षा के वाचक-पद माने गये हैं।
(च) उत्प्रेक्षा में अध्यवसान साध्य होता है अर्थात् वह सम्भावना के रूप में रहता है। इस तथ्य की अभिव्यक्ति के लिए उत्प्रेक्षा-लक्षण में सम्भावना, कल्पना, तर्क, ऊहा, अध्यवसान, साध्याध्यवसाय आदि पदों का प्रयोग हुआ है। अन्य हेतु आदि के आरोप के भाव को व्यक्त करने के लिए आरोप-पद का भी प्रयोग हुआ है। सम्भावना-पद अधिक प्रिय रहा है। वस्तुतः, वह अध्यवसान आदि पारिभाषिक पदों की अपेक्षा अधिक बोधगम्य भी है। एक वस्तु, फल एवं हेतु में अन्य की सम्भावना उत्प्रेक्षा का सरल लक्षण है। उत्प्रक्षा के भेद ___ आचार्य उद्भट ने भाव एवं अभाव के आधार पर उत्प्रेक्षा के दो भेद कर उनके वाच्य एवं प्रतीयमान भेदों की कल्पना की थी। रुद्रट ने औपम्यगर्भ उत्प्रेक्षा के तीन एवं अतिशयगर्भ के दो रूपों का निरूपण किया। कुन्तक के अनुसार सम्भाव्य के अनुमान से, सादृश्य (काल्पनिक एवं वास्तव) से तथा दोनों के सम्मिलित रूप से उत्प्रेक्षा होती है। इस प्रकार वे उसके तीन भेद कर चौथे भेद में क्रिया-हीन वस्तु में किसी क्रिया के प्रति कर्तृत्व की कल्पना कर लेते हैं।
रुय्यक ने उत्प्रेक्षा के अनेक भेदोपभेदों की कल्पना कर ली है। . रुय्यक-सम्मत उत्प्रेक्षा के भेदों की संख्या के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद रहा है। अप्पय्य दीक्षित ने 'चित्रमीमांसा में यह मन्तव्य व्यक्त किया है कि रुय्यक की वाच्योत्प्रेक्षा पचपन प्रकार की तथा गम्योत्प्रेक्षा चालीस प्रकार की है। इस प्रकार उत्प्रेक्षा के कुल पञ्चानबे भेद होते हैं। 'सञ्जीवनी' के अनुसार रुय्यक की वाच्या उत्प्रेक्षा छियानबे प्रकार की है; किन्तु द्रव्योत्प्रक्षा के फलमूलक और हेतुमूलक सोलह भेदों को इस संख्या से निकाल' भी दिया जा सकता है। कारण यह है कि रुय्यक द्रव्य का केवल स्वरूपोत्प्रेक्षण ही मानते हैं। अतः, फल और हेतु की द्रव्य से उत्प्रेक्षा मानने में कोई युक्ति नहीं है। इस प्रकार रुय्यक के मतानुसार अस्सी वाच्योत्प्रेक्षा-भेदों का ही सद्भाव स्वीकार किया जाना चाहिए। गम्योत्प्रेक्षा में अनुपात्तनिमित्ता को छोड़ केवल उपात्तनिमित्ता के छियालीस भेद ही स्वीकार्य हैं। रुय्यक की उत्प्रेक्षा “का सञ्जीवनी-समर्थित विभाग निम्न तालिका में प्रस्तुत है :