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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४६१ अप्पय्यदीक्षित, पण्डितराज जगन्नाथ आदि आचार्यों ने उत्प्रेक्षा के लक्षण में सम्भावना पद का प्रयोग किया है; परवर्ती आचार्यों में केशव मिश्र ने आचार्य रुद्रट की तरह उत्प्र ेक्षा में आरोप का तत्त्व स्वीकार किया है । वाग्भट उत्प्रेक्षा में की जाने वाली सम्भावना या कल्पना में औचित्य को भी वाञ्छनीय बताया । २ इसकी विशेष आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि औचित्य सभी अलङ्कारों का स्वीकृत मूलाधार ही है ।
हिन्दी के रीति- आचार्यों ने संस्कृत-आलङ्कारिकों की उत्प्रेक्षा- धारणा को ही स्वीकार किया है । उत्प्र ेक्षा लक्षण में सम्भावना या अनुमान के स्थान पर हिन्दी - रीतिशास्त्र में तर्क तथा ऊहा शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । गोविन्द कवि ने उत्प्र ेक्षा में तर्क पर बल दिया तो गोकुल कवि ने सम्भावना के लिए ऊहा शब्द का प्रयोग किया । 3 शब्द प्रयोग मात्र के इस भेद के होने पर भी हिन्दी - आलङ्कारिकों की उत्प्रेक्षा का स्वरूप प्राचीन उत्प्र ेक्षा के स्वरूप से अभिन्न रहा है ।
उत्प्रेक्षा के स्वरूप - विकास के अध्ययन का निष्कर्ष निम्नलिखित है (क) एक पदार्थ में अन्य पदार्थ की सम्भावना उत्प्रेक्षा का स्वरूप है । (ख) यह सम्भावना प्रायः अतिशयार्थ अर्थात् उत्कर्ष की सिद्धि के लिए की जाती है ।
(ग) उपमेय में उपमान की सम्भावना होने से — उपमान एवं उपमेय के सम्बन्ध की कल्पना के कारण उत्प्र ेक्षा सादृश्यमूलक अलङ्कार भी है और सम्भावना का प्रयोजन अतिशय या उत्कर्ष - साधन होने के कारण अतिशय -- मूलक भी ।
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(घ) किसी वस्तु की स्वाभाविक स्थिति में उसके किसी भिन्न कारण की सम्भावना भी उत्प्रेक्षा में की जाती है । वस्तु, फल और हेतु की सम्भावना के आधार पर उत्प्रेक्षा के तीन रूप स्वीकृत हुए हैं ।
(ङ) मन्ये, शङ्क े आदि शब्दों के साथ क्रिया-पद के साथ प्रयुक्त होने
१. अन्यनिमित्तके वस्तुन्यन्यनिमित्तकत्वारोप उत्प्र ेक्षा ।
– केशव मिश्र, अलं० शे० १३, पृ० ३४
२. वाग्भटालङ्कार, ४, १०
३. द्रष्टव्य, गोविन्द, कर्णाभरण पृ० ५ तथा गोकुल, चेतचन्द्रिका पृ० ४०