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४२४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण वामन तथा रुद्रट के द्वारा कुछ अलग-अलग रूप में कल्पित हुई। उन्हीं दोनों के परस्पर स्वतन्त्र विकास की परिणति विरोध तथा विरोधाभास; इन दो स्वतन्त्र अलङ्कारों के रूप में हुई है। विरोधाभास को एक ओर केवल अर्थालङ्कार तथा दूसरी ओर केवल शब्दालङ्कार (दास आदि के द्वारा) मानने के दो अतिगामी विचारों के बीच उसे उभयालङ्कार-वर्ग में रखना समीचीन जान पड़ता है। दास ने विरोधाभास में शब्द का चमत्कार स्वीकार करने पर भी विरोध-परिहार आवश्यक माना है, जो अर्थ के आधार पर ही सम्भव है। अतः, दास के विरोधाभास-लक्षण के अनुसार उसे शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार; दोनों (स्पष्ट शब्दों में शब्दार्थोभयालङ्कार) माना जा सकता है।
भामह, दण्डी तथा उद्भट ने विरोधाभास को जो परिभाषाएँ दी थीं, वे व्याख्या-सापेक्ष थीं। उनके अनुसार विरुद्ध पदार्थों का संसर्ग-वर्णन इस अलङ्कार में विशेष अर्थात् वर्ण्य के उत्कर्ष प्रदर्शन के लिए किया जाता है। दण्डी की इस धारणा को व्याख्या में नृसिंहदेव ने 'विशेषदर्शनायैव' ( केवल उत्कर्ष-निरूपण के लिए ) की व्याख्या करते हुए कहा है कि तात्त्विक-अविरोध में भी विरोध-प्रदर्शन वर्ण्य के उत्कर्ष-निरूपण के लिए 'विरोध' में किया जाता है। निष्कर्ष यह कि इसमें तात्त्विक अविरोध और प्रातिभासिक विरोध रहा करता है। इसलिए इसे विरोधाभास भी कहा जाता है।
भामह, दण्डी तथा उद्भट की विरोध-परिभाषाओं में, जो एक-दूसरे से मिलती-जुलती ही हैं, (भामह और उद्भट की परिभाषा तो अभिन्न है२) विरुद्ध गुण, क्रिया आदि की योजना का तो स्पष्ट शब्दों में उल्लेख हुआ है; पर यह स्पष्टतः अभिहित नहीं है कि विरोध तात्त्विक नहीं, प्रातिभासिकमात्र होता है। वामन ने अपनी विरोध-परिभाषा में यह स्पष्ट किया कि विरोध का आभास ही विरोध अलङ्कार है।3 भामह तथा दण्डी की
१. विशेषदर्शनायव विशेषः वर्णनीयस्य उत्कर्षः तस्य दर्शनाय निरूपणायव
विरुद्धानाम् अन्योन्यविरुद्धधर्मवतां पदार्थानां= जातिगुण क्रियाद्रव्याणाम् यत्र वैचित्र्ये संसर्गदर्शनम् सम्बन्धवर्णनम् सामानाधिकरण्यप्रतिपादनमिति यावत्, स विरोधः = वास्तवविरोधाभावेऽपि विरोधप्रयोजकत्वात् विरोधः [विरोधाभास] इति नामालङ्कारः स्मृतः ........।
-दण्डी, काव्याद० २, ३३३ की कुसुमप्रतिमा टी० पृ० २५४ २. द्रष्टव्य-भामह,काव्यालं० ३,२५ तथा उद्भट, काव्यालं० सार सं०५,६ ३. विरुद्धाभासत्वं विरोधः । -वामन, काव्यालं० सू० ४,३,१२