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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
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पता नहीं, ऐसी भ्रान्त धारणा का क्या आधार था। पुनरुक्तवदाभास को उभयगत मानना ही युक्तिसङ्गत जान पड़ता है; क्योंकि इसमें पुनरुक्ति का बोध पहले शब्द-प्रयोग चातुरी से होता है, पर पुनरुक्ति का परिहार अर्थसापेक्ष होता है।
हिन्दी के कुछ आचार्यों ने पुनरुक्तवदाभास के स्थान पर पुनरुक्ति संज्ञा का प्रयोग किया है। यह उचित नहीं । तात्त्विक पुनरुक्ति को तो काव्य में दोष ही माना जायगा । पुनरुक्ति के आभास-मात्र में अलङ्कारत्व रहता है । विरोधाभास
संस्कृत तथा हिन्दी-अलङ्कार-शास्त्र में प्रस्तुत अलङ्कार के दो नाम उपलब्ध हैं—विरोध तथा विरोधाभास । आरम्भ में भामह, दण्डी, उद्भट आदि ने विरोध संज्ञा से ही इस अलङ्कार के स्वरूप का निरूपण किया था; पर पीछे चल कर उसके लिए अधिक सार्थक अभिधान का प्रयोग हुआ। मम्मट ने यद्यपि विरोध संज्ञा का ही प्रयोग किया है, पर उन्होंने यह उल्लेख किया है कि इसे ही विरोधाभास भी कहते हैं। दण्डी, उद्भट, मम्मट, रुय्यक आदि के विरोधलक्षण पर विचार करने से उसका विरोधाभास नाम ही अन्वर्थ, अतः अधिक समीचीन जान पड़ता है। रुद्रट आदि आचार्यों के विरोध-अलङ्कार के लिए विरोध संज्ञा उपयुक्त है।
विरोध को अधिकांश आचार्यों ने अर्थालङ्कार माना है। मम्मट के अन्वय-व्यतिरेक के निकष पर तो शब्द-परिवृत्ति-सहत्व के कारण यह अर्थालङ्कार सिद्ध किया जा सकता है; पर आश्रय-भेद के आधार पर इसे केवल अर्थाश्रित मानने में दो मत हो सकते हैं । इसमें तात्त्विक अविरोध में विरोध का आभास उत्पन्न किया जाता है। स्वरूपतः विरोध की प्रतीति में शब्द-प्रयोग का चमत्कार अपेक्षित रहता है, विरोध-परिहार अवश्य अर्थ के आधार पर हुआ करता है । आचार्य भिखारी दास ने विरोध तथा विरोधाभास की अलग-अलग सत्ता मान कर विरोध को तो अर्थालङ्कार माना है; पर विरोधाभास को शब्दालङ्कार ।' संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र का एक ही अलङ्कार दो संज्ञाओं के कारण दो स्वतन्त्र-अलङ्कार बन गया। इसका दूसरा कारण यह था कि भामह, दण्डी तथा उद्भट के उपरान्त विरोध की परिभाषाएं १. भिखारी दास, काव्यनिर्णय, उल्लास १३ तथा २० । उसकी टीका पृ०
५६६ भी द्रष्टव्य