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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ४३३ उपमा-विवेचन से काव्य के अलङ्करणभूत उपमा के भेद-निरूपण के लिए यदि उसमें सुन्दर या हृदयग्राही सादृश्य वाञ्छनीय माना गया तो यह अनुचित नहीं हुआ ।
हिन्दी - रीति-काल में परम्परागत उपमा-धारणा का ही अनुवर्तन होता रहा । केशव ने उपमान और उपमेय में रूप, शील तथा गुण की समता आवश्यक बतायी। दोनों के बीच साधारण धर्म या समान गुण की चर्चा तो प्राचीन काल से उपमा-लक्षण में चल ही रही थी; अग्निपुराणकार ने दोनों की रूपगत समता ( सारूप्य) का भी उल्लेख किया था । केशव ने रूप एवं गुण की समता की धारणा प्राचीनों से लेकर एक शील की समता भी आवश्यक बता दी । प्राचीन आचार्यों के साधर्म्य या सादृश्य में केवल गुण की ही नहीं; क्रिया, द्रव्य आदि की समता की धारणा भी अन्तर्निहित थी । केशव ने कोई नवीन धारणा तो उपमा में नहीं जोड़ी, उलटे गुण के अतिरिक्त शील-जैसे अनावश्यक पद को परिभाषा में जोड़ कर परिभाषा को शिथिल बना दिया ।
देव ने दो वस्तुओं में गुण तथा अवगुण की समता के आधार पर उपमा की कल्पना की । इस प्रकार उनके मतानुसार उत्कृष्ट गुण की समता के आधार पर एक प्रकार की; और दुर्गुण की समता के आधार पर दूसरे प्रकार की उपमा होगी । स्पष्ट है कि पहले से जो समान धर्म या समान गुण की चर्चा होती रही थी, उसका सीमित अर्थ ही देव ने समझा था । अतः, गुण का अर्थ उत्कृष्ट गुण मान कर उन्होंने अपनी ओर से निकृष्ट गुण में भी उपमा की कल्पना की । गुण का अर्थ केवल सद्गुण समझने का कारण यह हो सकता है कि प्राचीन आचार्य उत्कृष्ट गुणवान् ( उपमान ) के साथ किसी वस्तु के सादृश्य के वर्णन में उपमा मानते रहे थे । उपमेय की अपेक्षा उपमान में गुणोत्कर्ष की धारणा आवश्यक मानी गयी थी । वर्ण्य वस्तु की किसी अन्य वस्तु से तुलना ही इस मान्यता पर आधृत है कि उस ख्यात गुण बाली
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१. रूप शील गुण होय सम जो क्यों हूँ अनुसार । तास उपमा कहत कवि केशव बहुत प्रकार ॥
- केशव, कविप्रिया, १४, १
२. गुन, औगुन सम तौलि कँ, जहाँ एक सम और,
सो उपमा, कहि (गहि) वाच्य (वाक्य) पद, सकल अर्थ लघु ठौर
- देव, शब्दरसायन ६ पृ० १५०
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