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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
शब्द का प्रयोग हुआ । इस तरह दो वस्तुओं में रूपगत समता आवश्यक मानी गयी । भोज ने भी दो पदार्थों के बीच अवयव - सामान्य उपमा में वाञ्छनीय माना है। इस प्रकार भोज की उपमा का स्वरूप अग्निपुराणकार की उपमा से तत्त्वतः भिन्न नहीं । उनकी उपमा - परिभाषा में 'प्रसिद्धि के अनुरोध' का उल्लेख भी उसे अग्निपुराण की उपमा - परिभाषा में निर्दिष्ट 'लोक-यात्रा के प्रवर्त्तन' के समीप ला देता है ।
मम्मट ने परस्पर स्वतन्त्र दो वस्तुओं में साधर्म्य को उपमा कहा । २ रुय्यक की धारणा मम्मट की इस धारणा से मिलती-जुलती अवश्य है; पर उसमें साधर्म्य की भेदाभेदतुल्यता का स्पष्ट उल्लेख हुआ है । उपमा में साधर्म्य की भेदाभेदतुल्यता आवश्यक मानी जाती है । अर्थात्, इसमें दो वस्तुओं के बीच कुछ साधारण तत्त्व रहते हैं, जो दोनों का अभेद-ज्ञान कराते हैं और कुछ असाधारण तत्त्व होते हैं, जिनसे दोनों का भेद प्रतीत होता है । मम्मट ने भी साधर्म्य के इसी भेदाभेदतुल्य रूप को उपमा में अपेक्षित माना था । भेदप्रधान साधर्म्य वाले व्यतिरेक को तथा अभेद-प्रधान साधर्म्य वाले रूपक आदि को मम्मट ने भी भेदाभेदतुल्य साधर्म्य-प्रधान उपमा से स्वतन्त्र माना है ।
हेमचन्द्र, वाग्भट, शोभाकर, जयदेव, विद्यानाथ, विद्याधर, विश्वनाथ, केशव मिश्र, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि संस्कृत के परवर्ती आचार्यों ने उपमा के लक्षण में कोई विशेष बात नहीं लायी । कुन्तक आदि की तरह चेतोहारी, हृद्य, सुन्दर आदि विशेषण सादृश्य के लिए जगन्नाथ आदि के उपमा - लक्षण में प्रयुक्त हुए हैं । 3 कुछ लोगों ने अलङ्कार-मात्र के मूल में सौन्दर्य की धारणा निहित रहने के कारण अलङ्कार - विशेष के लक्षण में सुन्दर आदि पद के प्रयोग को अनावश्यक ही नहीं, पुनरुक्ति दोष-दुष्ट भी माना है । * उपमा-लक्षण में सुन्दर आदि विशेषण का प्रयोग विशेष उद्देश्य से किया गया जान पड़ता है। दो वस्तुओं के बीच सादृश्य - निरूपण की चर्चा शास्त्र में - काव्यशास्त्र तर शास्त्र में हो रही थी । न्याय, व्याकरण आदि के उस शुष्क १. प्रसिद्ध ेरनुरोधेन यः परस्परमर्थयोः । भूयोऽवयव सामान्ययोगः सेहोपमा मता ॥
- भोज, सरस्वती कण्ठा, ४, ५.
२. साधर्म्यमुपमा भेदे...... । - मम्मट, काव्यप्र० १०, १२५ ३. सादृश्यं सुन्दरम् उपमालङ्क तिः । - जगन्नाथ, रसगंगा० पृ० २४८ ४. द्रष्टव्य, डॉ० रामचन्द्र द्विवेदा, अलङ्कार मीमांसा, पृ० २१४-१५