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अलङ्कारों का वर्गीकरण
३६६ प्रस्तुत किया है; पर उनके वर्ग-विभाग का कोई स्पष्ट आधार नहीं । अलङ्कार के मूल तत्त्व के आधार पर तो वह वर्ग विभाजन नहीं ही माना जा सकता—वह शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार के स्थूल विभाग के आधार पर भी विभाजित नहीं है । प्रथम वर्ग में ही शब्दालङ्कार के साथ उपमा, रूपक, दीपक तथा प्रतिवस्तूपमा अर्थालङ्कारों को प्रस्तुत किया गया है । यह ठीक है कि आचार्य उद्भट ने पुनरुक्तवदाभास, अनुप्रास आदि से अलग इन अर्थालङ्कारों का स्वभाव माना है; पर यह स्पष्ट है कि उन्होंने ग्रन्थ के वर्गों का विभाजन न तो अलङ्कार के आश्रयभूत शब्दार्थ के आधार पर किया है और न अलङ्कार के मूल तत्त्वों के आधार पर ही । सम्भव है कि उन वर्गों
अलङ्कार के विकास के एक-एक क्रम का सङ्क ेत उद्भट ने देना चाहा हो, या यह भी सम्भव है कि एक-एक वर्ग के अलङ्कारों को वे विशेष विशेष आलङ्कारिकों के द्वारा कल्पित मानते हों; पर प्रमाण के अभाव में इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता । 'काव्यालङ्कारसारसङग्रह' का वर्ग-विभाग अलङ्कारों के वर्गीकरण की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं रखता । रुद्रट का वर्गीकरण ऐतिहासिक दृष्टि से तो प्रथम है ही - तत्त्व - निरूपण की दृष्टि से भी वह महत्त्वपूर्ण है ।
आचार्य रुद्रट ने अपने 'काव्यालङ्कार' में विवेचित अलङ्कारों को आश्रय के आधार पर शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार-वर्गों में विभाजित कर अर्थालङ्कारों को मूलतत्त्वों के आधार पर निम्नलिखित चार वर्गों में विभक्त कर उपस्थापित किया है— ( १ ) वास्तव - वर्ग, ( २ ) औपम्य - वर्ग, (३) अतिशय-वर्ग तथा ( ४ ) श्लेष - वर्ग ।
रुद्रट ने उक्त चार वर्गों में अलङ्कारों के विभाजन का सिद्धान्त स्पष्ट कर दिया है । उनके अनुसार जिन अलङ्कारों में सादृश्य, अतिशय तथा श्लेष को छोड़ केवल वस्तु के स्वरूप का स्पष्ट वर्णन होता है, वे वास्तवमूलक अलङ्कार हैं । जिन अलङ्कारों में वस्तु-विशेष का अन्य वस्तु के साथ सादृश्य से सम्यक् रूपेण तुलनात्मक प्रतिपादन किया जाता है, उन्हें औपम्यमूलक अलङ्कार कहा जाता है । जिन अलङ्कारों में लोक- प्रसिद्धि के बाध के
१. वास्तवमिति तज्ज्ञेयं क्रियते वस्तुस्वरूपकथनं यत् । पुष्टार्थमविपरीत निरुपममनतिशयमश्लेषम् ॥
- रुद्रट, काव्यालङ्कार, ७, १० २. सम्यक् प्रतिपादयितुं स्वरूपतो वस्तु तत्समानमिति । वस्त्वन्तरमभिदध्याद्वक्ता यस्मिंस्तदौपम्यम् ॥ - वही, ८, १
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