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पञ्चम अध्याय"
अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
भारतीय अलङ्कार-शास्त्र में निरूपित काव्यालङ्कारों के लक्षण की परीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी अलङ्कार के किसी विशेष आचार्य द्वारा कल्पित लक्षण से सभी आचार्य सहमत नहीं । एक ही आचार्य के द्वारा प्रतिपादित अलङ्कार-लक्षण से सभी आचार्यों की सहमति उनकी स्वस्थ समीक्षात्मक दृष्टि का परिचायक भी नहीं होती। सभी आचार्यों ने अलङ्कार - विशेष के सम्बन्ध में पूर्व स्थापित मान्यता पर विचार करते हुए उसका परिमार्जित और निर्दुष्ट लक्षण-निरूपण करने का प्रयास किया है । जिन आचार्यों में विषयविवेचन की मौलिक दृष्टि थी, उन्होंने स्वतन्त्र रूप से अलङ्कार - विशेष की परिभाषा की कल्पना की । सामान्य मेधा वाले आचार्यों ने पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा निरूपित अलङ्कार - लक्षणों में से ही किसी एक का ग्रहण और अन्य का त्याग किया। कुछ आचार्यों ने पूर्व उद्भावित अनेक लक्षणों को मिला-जुला कर अलङ्कार - विशेष का एक लक्षण बना दिया । अलङ्कार - लक्षण का यह त्याग-ग्रहण आरम्भ से अन्त तक चलता रहा है । बीच-बीच में स्वतन्त्र चिन्तन से भी अलङ्कार-लक्षणों की कल्पना होती रही है । अतः, अलङ्कार - विशेष का लक्षण - विकास अलङ्कार-धारणा के क्रमिक विकास का प्रतिनिधित्व नहीं करता, जैसा कि भ्रमवश कुछ लोगों ने मान लिया है ।' अलङ्कार - विशेष के लक्षणविकास के पीछे कई कारण विद्यमान रहे हैं, जिनमें कुछ का सम्बन्ध साहित्य -- विषयक मान्यता से तथा कुछ का सम्बन्ध मूलतः भाषा की प्रकृति से है ।
१. द्रष्टव्य— डॉ० ओम्प्रकाश, रीतिकालीन अलङ्कार - साहित्य का शास्त्रीय विवेचन, पृ० २२ε