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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [४०९ में अनियत ।' विश्वनाथ ने अन्त्यानुप्रास में वर्णावृत्ति के स्थान-नियम को स्वीकार कर उक्त धारणा को अस्वीकार कर दिया।
अनुप्रास के सम्बन्ध में हिन्दी के आलङ्कारिकों की धारणा मम्मट, रुय्यक तथा विश्वनाथ आदि आचार्यों की धारणा से मिलती-जुलती है। दास ने अनुप्रास-भेद के रूप में तुक का विस्तार से वर्णन किया है। तुक की धारणा का मूल विश्वनाथ की अन्त्यानुप्रास-धारणा में है। हिन्दी-रीति-शास्त्र में तुक या अन्त्यानुप्रास का विशद विवेचन सकारण है। हिन्दी में तुकान्त छन्दों में बहुलता से काव्य-रचना होने के कारण तुक की विस्तृत मीमांसा की आवश्यकता हुई।
अनुप्रास को काव्य में यमक की अपेक्षा अधिक महत्त्व मिला; क्योंकि इसे रतोपकारक माना गया है। अनुप्रास शब्द के व्युत्पत्त्यर्थ में रसोपकारकता की धारणा निहित है। आचार्य दण्डी ने केवल श्र त्यनुप्रास को रस-पोषक माना था। आचार्य देव ने अनुप्रास-मात्र को 'रस-पूर' माना है।
अनुप्रास के स्वरूप के सम्बन्ध में संस्कृत तथा हिन्दी-आचार्यों की धारणा का सार-संक्षेप निम्नलिखित है :
अनुप्रास में स्वर-निरपेक्ष व्यञ्जन की व्यवहित आवृत्ति होती है। परुषा, कोमला आदि वृत्तियों के लिए निर्धारित वर्णों की आवृत्ति के आधार पर वृत्त्यनुप्रास के पाँच भेद स्वीकृत हैं। अनुप्रास में व्यञ्जनावृत्ति उसी क्रम में भी हो सकती है और क्रम-परिवर्तन से भी। स्वर-व्यञ्जन-समुदाय अर्थात् सार्थक पद की भी आवृत्ति अनुप्रास में हो सकती है; पर ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि आवृत्त पदों का वाच्यार्थ अभिन्न तथा तात्पर्यार्थ भिन्न हो। समान स्थान-प्रयत्न से उच्चरित वर्णों की अदूर योजना में भी ध्वनि-प्रभाव के साम्य के कारण अनुप्रास का सद्भाव माना जाता है। सामान्यतः अनुप्रास में वर्ण की आवृत्ति का स्थान अनियत रहता है; किन्तु अन्त्यानुप्रास में पाद या पद के अन्त में वर्ण की नियत आवृत्ति अपेक्षित होती है । इस प्रकार सरूप-वर्णाभ्यासरूप अनुप्रास के पाँच भेद हो जाते हैं :
(क) वृत्तिविशेष में प्रयुक्त व्यञ्जन-समुदाय की आवृत्ति (वृत्त्यनुप्रास) (ख) वर्णसङ्घ की क्रम-भङ्ग-आवृत्ति (छेकानुप्रास) (ग) तात्पर्य-भेद से समानार्थक पद की आवृत्ति (लाटानुप्रास) १. वामन आदि ने इसी आधार पर दोनों का भेद किया था।
-द्रष्टव्य वामन, काव्यालं. सू० वृत्ति ४, १, १ तथा ४, १,८