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४१६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण रूप से परिभाषित किया है। उनके मतानुसार प्रहेलिका में ऊपर से किसी अर्थ को प्रकट कर सही अर्थ का गोपन किया जाता है।' ___ रस-सम्प्रदाय के आचार्यों ने प्रहेलिका को अलङ्कार के रूप में स्वीकार नहीं किया है। विश्वनाथ ने इसे रस-परिपन्थी कह कर त्याज्य बताया है । २ प्राचीन आलङ्कारिकों ने भी प्रहेलिका को अलङ्कार के रूप में विशेष महत्त्व नहीं दिया था।
हिन्दी के रीति-आचार्यों ने भी प्रहेलिका में विशेष रुचि नहीं दिखायी। केशव, भिखारी, बलवान सिंह आदि ने प्रहेलिका को अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर प्राचीन आचार्यों की धारणा के अनुरूप उसका स्वरूप-निरूपण किया है। वक्रोक्ति ___ भारतीय काव्य-शास्त्र में जहां एक ओर वक्रोक्ति की धारणा का विकास उसके व्यापक अर्थ में काव्य के प्रमुख तत्त्व के रूप में हुआ है, वहाँ दूसरी ओर सङ कुचित अर्थ में उसे काव्यालङ्कार का एक भेद-मात्र माना गया है। उक्ति की वक्रता अर्थात् लोकोत्तरता, जिसे पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्य की चारुता से अभिन्न माना है, अलङ्कार-विशेष की सीमा में परिबद्ध नहीं की जा सकती। उक्तिगत वक्रता का यही अर्थ भामह, कुन्तक आदि के मन में था। इसीलिए भामह ने उसे अतिशयोक्ति से मिलाते हुए काव्यार्थ का विभावक माना था और कुन्तक ने लोक-सामान्य स्वभाव-उक्ति के अलङ्कारत्व का खण्डन किया था। यह ध्यातव्य है कि भारतीय अलङ्कार-शास्त्र में अलङ्कार-विशेष के रूप में वक्रोक्ति की धारणा कुछ विशिष्ट अर्थ के साथ विकसित हुई है। इसमें भी उक्ति की वक्रता की धारणा अवश्य है, पर एक विशेष अर्थ में । प्रस्तुत सन्दर्भ में हमारा विवेच्य विशिष्ट अर्थ में वक्रोक्ति-अलङ्कार का-जिसे रुद्रट आदि ने शब्दालङ्कार और रुय्यक, अप्पय्य आदि ने अर्थालङ्कार माना है—स्वरूप विकास है। १. व्यक्तीकृत्य कमप्यर्थ स्वरूपार्थस्य गोपनात् । यत्राबाह्यान्तरावर्थो कथ्यन्ते ता: प्रहेलिकाः॥
-धर्मदास सूरि, विदग्ध मुखमण्डन २. रसस्य परिपन्थित्वान्नालङ्कारः प्रहेलिका। उक्तिवैचित्र्यमात्र सा च्युतदत्ताक्षरादिका॥
.. -विश्वनाथ, साहित्यद० १०,१६