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- अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २९७ -स्वतन्त्र अलङ्कार की कल्पना परवर्ती आचार्यों ने कर ली है। इस तरह प्राचीन आचार्यों के एक लक्षण या एक अलङ्कार के सामान्य स्वरूप में ही परवर्ती आचार्यों के अनेक अलङ्कारों की सम्भावना बीज-रूप में पायी जा सकती है।
लक्षण के अतिरिक्त गुण आदि की धारणा के आधार पर भी पीछे चल कर नवीन अलङ्कारों की कल्पना कर ली गयी है।
कुछ नाटक आदि के अङ्गभूत तत्त्व भी अलङ्कार के आविर्भाव में सहायक हुए हैं। मुद्रा-जैसे अलङ्कार की कल्पना इसका उदाहरण है ।
दर्शन आदि में विवेचित काव्येतर तत्त्व भी काव्यालङ्कार की कल्पना में सहायक हुए हैं। इस प्रकार न्यायमूलक अलङ्कारों की काव्य-क्षेत्र में अवतारणा दर्शन के क्षेत्र से हुई है।
भोज ने रीति, वृत्ति आदि काव्य-तत्त्वों को अलङ्कार के रूप में परिगणित कर लिया है। यह मान्यता निर्धान्त नहीं। इसके पीछे भोज का संख्याविशेष के प्रति मोह ही हेतु है। इसीलिए भोज के परवर्ती आचार्यों ने रीति, वृत्ति आदि को अलङ्कार नहीं मान कर स्वतन्त्र काव्य-तत्त्व माना है । - कुछ आचार्यों द्वारा अलङ्कार-विशेष के अलङ्कारत्व का खण्डन किये जाने पर भी वह अलङ्कार परवर्ती आचार्यों के द्वारा स्वीकृत होता रहा है। उदाहरणार्थ; कुन्तक ने अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद स्पष्ट करते हुए -स्वभावोक्ति आदि को अलङ्कार्य सिद्ध किया था। फिर भी परम्परा का अनुसरण करते हुए प्रायः सभी आलङ्कारिकों ने स्वभावोक्ति को अलङ्कार मान लिया है। स्पष्ट है कि अलङ्कार और अलङ्कार्य के बीच स्पष्ट विभाजकरेखा नहीं रहने के कारण भी अलङ्कारों की संख्या का इतना प्रसार होता गया । उक्तिभङ्गी से आरम्भ होकर अलङ्कार का क्षेत्र वर्ण्य-वस्तु तक फैल गया। इस प्रकार उदात्त, भाविक आदि भी अलङ्कार बन गये। वर्ण्य-वस्तु में अलङ्कारस्व मानने में दो मत हो सकते हैं। विशेष मनोभावों के आधार पर भी कुछ अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना की गयी। प्रहर्षण, विषादन आदि इसके उदाहरण हैं।
आचार्य भरत से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ तक निम्नलिखित अलङ्कारों की कल्पना की गयी है :