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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
....: 'ललितललाम' में अपह्नति के सभी भेद 'कुवलयानन्द' से ही लिये गये हैं। उसके भेदों में एक छलापह्नति-भेद आपाततः नवीन जान पड़ता है; पर वस्तुतः वह 'कुवलयानन्द' के कैतवापत् ति से अभिन्न है । छल कैतव का ही अपर पर्याय है। 5 " उत्प्रेक्षा के मुख्य छह भेद तो मतिराम ने 'कुवलयानन्द' से ही लिये हैं, साथ ही एक गुणोत्प्रेक्षा-भेद की भी परिभाषा उन्होंने दी है। उनके अनुसार जहाँ उत्प्रेक्षा के वाचक शब्द उक्त नहीं होते, वहाँ गुणोत्प्रेक्षा होती है।' यह धारणा भी 'कुवलयानन्द' से ही ली गयी है। अप्पय्य दीक्षित ने इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि वाचक शब्दों के उक्त होने पर उत्प्रेक्षा वाच्य होती है। उनके अनुक्त होने पर गम्य ।' अप्पय्य की गम्योत्प्रेक्षा-धारणा को ही मतिराम ने गुप्तोत्प्रेक्षा की परिभाषा में प्रस्तुत किया है।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि मतिराम के 'ललितललाम' में किसी नवीन अलङ्कार की उद्भावना नहीं हुई है। मतिराम की अलङ्कार-विवेचना का महत्त्व केवल परिभाषाओं की स्पष्टता में है।
भूषण भूषण आचार्य की अपेक्षा कवि के रूप में अधिक विख्यात हैं। 'शिवराजभूषण' में उन्होंने अर्थालङ्कारों को परिभाषित कर शिवराज के कीर्तिगान में स्वरचित छन्दों के उदाहरण दिये हैं। आश्रयदाता के स्तुतिपरक पदों से ही उदाहरण चुनने का आग्रह होने से कहीं-कहीं उदाहरण सदोष भी हो गये हैं। भूषण और मतिराम के अलङ्कार-विवेचन में पर्याप्त साम्य है। 'शिवराजभूषण' में विवेचित अलङ्कार निम्नलिखित हैं
शब्दालङ्कार-अनुप्रास, यमक, पुनरुक्तिवदाभास और चित्र ।
अर्थालङ्कार-उपमा, प्रतीप, उपमेयोपमा, मालोपमा, ललितोपमा, अनन्वय, रूपक, परिणाम, उल्लेख, स्मृति, भ्रम, सन्देह, अपह्न ति, उत्प्रेक्षा, . : १. उत्प्रेक्षा वाचक जहाँ शब्द कह्यो नहिं होय। .::... गुप्तोत्प्रेक्षा कहत हैं तहाँ x x x ॥
-मतिराम, ललितललाम, १०६ PUR. अप्पय्य, कुवलयानन्द, ३२ . ..