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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
परिवृत्त अलङ्कार होता है। इसके एक उदाहरण में 'जिसका भला कीजिए वही बुरा मानता है', कहा गया है ।२ इस तरह प्राचीनों की अनिष्टावाप्तिरूप विषम-भेद की धारणा को भी केशव ने परिवृत्त में समेट लिया है । लाला भगवानदीन ने केशव के परिवृत्त अलङ्कार के स्वरूप को विषादन अलङ्कार के एक रूप के समान माना है । 3 भलाई के बदले बुराई मिलने की धारणा प्राचीन आचार्यों के परिवृत्ति-लक्षण के सहारे भी व्यक्त की जा सकती थी; पर केशव ने नवीनता के मोह में उस प्राचीन-धारणा को भी अस्पष्ट कर उपस्थित किया है ।
आचार्य केशव की अलङ्कार-धारणा के इस विवेचन से स्पष्ट है कि उनकी 'कविप्रिया' में अलङ्कारों का स्वरूप-विवेचन प्रौढ़ नहीं है। अलङ्कारवादी होने पर भी केशव ने अलङ्कार-निरूपण को चलता कर दिया है, जैसे वे अपने आचार्यत्व के दायित्व को अनिच्छा से ढो रहे हों। उनके पूर्व संस्कृतअलङ्कार-शास्त्र में जितने अलङ्कारों का स्वरूप-निरूपण हो चुका था तथा उनमें से जितने अलङ्कार-साहित्य के पाठकों को बहुमान्य हो चुके थे, उन सबों का भी स्पष्ट रूप से यथातथ उपस्थापन केशव की 'कविप्रिया' में नहीं हो सका। उन्होंने केवल बयालीस अलङ्कारों का लक्षण-निरूपण किया है, जिनमें प्रेम, अमित, गणना, सुसिद्ध, प्रसिद्ध, तथा विपरीत; नवीन नामधारी अलङ्कार हैं। इनमें से प्रेम को अलङ्कार नहीं माना जा सकता। वह हृदय का भाव है। सुसिद्ध, प्रसिद्ध और गणना में कोई चमत्कार नहीं; अतः उन्हें अलङ्कार मानना उचित नहीं। विपरीत में भी चमत्कार का अभाव है। अतः, उसका अलङ्कारस्व सन्दिग्ध है। अन्योक्ति अप्रस्तुतप्रशंसा का अपर पर्याय है। परिवृत्त की धारणा को केशव ने अस्पष्ट कर दिया है। उनका उत्प्रेक्षा-लक्षण भी स्पष्ट नहीं। युक्त में स्वभावोक्ति और सम का स्वभाव मिश्रित है। अमित की उद्भावना का श्रेय के शव को है; किन्तु यह अलङ्कार लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सका।
स्पष्टतः, 'कविप्रिया' में अलङ्कार की कुछ नवीन संज्ञाओं की कल्पना करने पर भी केशव ने अलङ्कार-शास्त्र को कोई मौलिक योगदान नहीं दिया है। उन्होंने प्राचीन आचार्यों की अलङ्कार-विषयक मान्यता का ही अनुसरण
१. जहाँ करत कछु और ही उपजि परत कछु और । ___ तासौं परिवृत जानियो.........|| केशव, कविप्रिया, १३,३६ २. द्रष्टव्य-वही, १३, ४२ ३. वही, प्रिया-प्रकाश टीका, पृ० २७२