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३०० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण आधार पर अलङ्कारों का वर्गीकरण हुआ तो दूसरी ओर वास्तव, औपम्य, अतिशय एवं श्लेष वर्गों में उन्हें विभाजित किया गया।'
उद्गम-स्रोत की दृष्टि से संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में विवेचित काव्यालङ्कारों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैं :
(क) लक्षण से आविर्भूत, (ख) रीति, वृत्ति आदि काव्य-तत्त्वों से समुद्भूत, (ग) गुण से निःसृत, (घ) अन्य नाट्य-तत्त्वों के आधार पर कल्पित, (ङ) दर्शन आदि काव्येतर शास्त्र के क्षेत्र से काव्य-क्षेत्र में अवतरित (च) अलङ्कार-विशेष से बहुत सूक्ष्म भेद के आधार पर उससे स्वतन्त्र रूप में कल्पित, (छ) अलङ्कार-विशेष के विपर्ययात्मक रूप में कल्पित, (ज) समयसमय पर विशेष आचार्यों के द्वारा उद्भावित नवीन अलङ्कार, जिनमें से कुछ का अलङ्कारत्व असन्दिग्ध है; पर कुछ का सन्दिग्ध, (झ) रस, भाव आदि की धारणा से आविर्भूत, (ञ) औचित्य की धारणा पर आधृत तथा (ट) शब्दशक्तियों पर अवलम्बित ।
(१) लक्षण से आविर्भूत :-लक्षण के साथ लक्षण, गुण, अलङ्कार आदि के योग से अनेक अलङ्कारों की रूप-रचना हुई है। आचार्य अभिनव ने अलङ्कारों की संख्या-प्रसृति का प्रधान हेतु इसे ही माना था। संस्कृत काव्य-शास्त्र में कल्पित निम्नलिखित अलङ्कारों का मूल लक्षण में हैं :-प्रय, विरोध, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, व्याजस्तुति, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, अपह्न ति, तुल्ययोगिता, अप्रस्तुतप्रशंसा, निदर्शना, सन्देह, उदात्त, हेतु, सूक्ष्म, लेश, दृष्टान्त, विरोधाभास, भाव, अनुमान, परिकर, परिसंख्या, उत्तर, अवसर (एक प्रकार), औपम्यवर्गगत मत, उत्तर, भ्रान्तिमान्, सम्भव, मिथ्याध्यवसिति, निरुक्ति, ललित और अनुज्ञा ।
(२) रोति, वृत्ति आदि काव्यतत्त्वों से समुद्भूत :-भोज ने रीति, वृत्ति आदि को भी काव्यालङ्कार के रूप में परिगणित कर लिया है। यह मान्यता समीचीन नहीं। रीति, वृत्ति आदि अलङ्कार से स्वतन्त्र काव्याङ्ग हैं। इसीलिए भोज की इस मान्यता को अलङ्कारशास्त्र में समर्थन प्राप्त नहीं हो सका । भणिति, शय्या, गुम्फना आदि भी ऐसे ही अलङ्कार हैं।
१. रुद्रट ने वास्तव, औपम्य, अतिशय एवं श्लेष वर्गों में अलङ्कारों का विभाजन किया है। सादृश्य, विरोध तथा शृङ्खला आदि के आधार पर अलङ कारों के वर्गीकरण का प्रयास रुय्यक आदि ने किया।