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३०८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण .. केशव की उत्प्रेक्षा संस्कृत आलङ्कारिकों की उत्प्रेक्षा से अभिन्न है; किन्तु केशव की उत्प्रेक्षा-परिभाषा प्राचीन आचार्यों की परिभाषा का तरह स्पष्ट और सटीक नहीं। उत्प्रेक्षा सादृश्यमूलक अलङ्कार है, जिसमें प्रस्तुत में अप्रस्तुत की सम्भावना होती है। केशव ने उत्प्रेक्षा का लक्षण अन्य वस्तु में अन्य का तर्क माना है।' इस परिभाषा में सादृश्य पर, जो उत्प्रेक्षा का आधार है, प्रकाश नहीं पड़ता । अतः यह लक्षण अशक्त है।
आक्षेप के लक्षण तथा भेदोपभेद आचार्य दण्डी की तद्विषयक मान्यता के आधार पर कल्पित हैं। संशय, आशिष, धर्म तथा उपाय आक्षेप-भेद दण्डी से लिये गये हैं। मरण, प्रेम आदि भेदों की कल्पना का आधार भी 'काव्यादर्श' के आक्षेप-भेदों के उदाहरण में ही है। दण्डी ने स्वयं भा आक्षेप के अन्य अनेक भेदों की सम्भावना स्वीकार की थी।
क्रम अलङ्कार के सम्बन्ध में केशव की धारणा संस्कृत-आचार्यों की क्रमधारणा से भिन्न है। संस्कृत के आचार्यों ने क्रम को यथासंख्य का पर्याय माना था; पर केशव ने उसे एकावली के समान बना दिया है। 'कविप्रिया' में कम की परिभाषा स्पष्ट नहीं है। आदि से अन्त तक वर्णन केशव के अनुसार क्रम है। भोज ने क्रमशः उत्पत्यादि-क्रम के वर्णन को क्रम कहा था। केशव का उक्त लक्षण भोज के क्रम-लक्षण के समीप है। केशव के द्वारा प्रदत्त निम्नलिखित उदाहरण एकावली का उदाहरण है
सोमति सो न समा जहँ वृद्ध न, बुद्ध न ते जु पढे कछु नाहीं । ते न पढे जिन साधु न साधित, दीह दया न दिपै जिन माहीं। सो न दया जु न धर्म धरै घर, धर्म न सो जहँ दान वृथाहीं । दान न सो जहं साँच न 'केशव' सांच न सो जु बसै छल छाहीं । 3
स्पष्ट है कि क्रम केशव की नवीन उद्भावना नहीं है। पूर्वाचार्यों की एकावली आदि की धारणा को ही केशव ने क्रम के नाम से कुछ विकृत रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों के एकावली, कारणमाला तथा यथासंख्य आदि का सद्भाव स्वीकार नहीं कर, सभी क्रम-मूलक अलङ्कारों को 'क्रम' की परिभाषा में समेट लेना चाहा है। परिणाम यह हुआ है कि
१. केशव और वस्तु में और कीजिये तर्क । - उत्प्रेक्षा तासों कहैं.....वही, ६, ३० २. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्यादर्श, २, १६८ ३. केशव, कविप्रिया, ११, ३