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२०० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण की संज्ञा पाकर शब्दालङ्कार के रूप में स्वीकृत हुई। अध्येयत्व, श्रव्यत्व, प्रेक्ष्यत्व, आदि काव्य और नाटक के सामान्य गुण भी अध्येय आदि आख्याओं से अलङ्कार की श्रेणी में परिगणित हुए।
भणिति, शय्या, गुम्फना, वाकोवाक्य आदि को शब्दालङ्कार मानना समीचीन नहीं। उनमें लक्षण, ध्वनि, वक्रता आदि काव्य के महत्त्वपूर्ण तत्त्व समाविष्ट हैं।
यमक, अनुप्रास, श्लेष, चित्र, प्रहेलिका आदि की धारणा में कोई नवीनता नहीं। उनके सामान्य स्वरूप की धारणा के सम्बन्ध में भोज अपने पूर्ववर्ती आचार्यों से सहमत हैं।
अनेक शब्दालङ्कारां के छह-छह उपभेद करने में विशेष संख्या के प्रति उनका मोह स्पष्ट है। प्राचीन आचार्यों की मान्यता की अवहेलना कर शब्दगत, अर्थगत एवं उभयगत अलङ्कारों की संख्या के निर्धारण में जो विलक्षणता भोज ने दिखायी है, वह चौबीस संख्या की एकरूपता के प्रति उनके लोभ का ही परिचायक है। यही कारण है कि उनकी अलङ्कार-संख्याविषयक मान्यता परवर्ती आचार्यों को मान्य नहीं हुई।
भारतीय साहित्यशास्त्र में अधिकरण-भेद से अलङ्कार के दो वर्ग स्वीकृत हुए हैं-शब्दालङ्कार वर्ग तथा अर्थालङ्कार वर्ग । भोज ने उसके तीन वर्गों की कल्पना की। शब्द तथा अर्थ के अलङ्कारों के बीच एक शब्दार्थोभयगत अलङ्कारों का वर्ग मान लिया गया। सामान्यतः शब्दालङ्कार की अपेक्षा काव्य में अर्थालङ्कार को अधिक महत्त्व दिया जाता है। भोज ने शब्द तथा अर्थ के अलङ्कारों की अपेक्षा उभयालङ्कारों को अधिक महत्त्व दिया है।' . भोज के द्वारा प्रस्तुत अलङ्कारों का वर्गीकरण वैज्ञानिक नहीं हो सका है। कुछ शब्दालङ्कारों के लक्षण में अर्थ की घटना पर बल देकर भोज ने उन्हें शुद्ध शब्दालङ्कार नहीं रहने दिया है। गुम्फना में शब्द के साथ अर्थ की रचना, शय्या में पदार्थ की घटना पर बल दिया जाना आदि इस कथन के प्रमाण हैं।
शब्दालङ्कारों के कुछ भेदोपभेदों की कल्पना आचार्य भरत के लक्षणविशेष की धारणा के आधार पर की गयी है। उदाहरणार्थ मुद्रा के षष्ठ भेद का स्वरूप भरत के अनुक्तसिद्धि नामक लक्षण के तत्त्व से निर्मित है।
१. भोज-सरस्वतीकण्ठाभरण, ४, १