________________
अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २०३ अग्निपुराण में विवेचित अलङ्कार वर्गानुक्रम से निम्निलिखित हैं :शब्दगत अलङ्कार
(१) अनुप्रास, (२) यमक, (३) चित्र तथा (४) बन्ध । चित्र के प्रश्न, प्रहेलिका आदि सात भेद स्वीकृत हैं।' बन्धों का उल्लेख चित्र से स्वतन्त्र रूप में किया गया है। प्राचीन आचार्यों ने चित्र के ही सन्दर्भ में विभिन्न बन्धों की कल्पना की थी। अर्थगत अलङ्कार
(१) स्वरूप या स्वभावोक्ति. (२) सादृश्य, (३) उत्प्रेक्षा, (४) अतिशय, (५) विभावना, (६) विरोध, (७) हेतु तथा (८) सम। समानधर्म पर आधृत उपमा, रूपक, सहोक्ति तथा अर्थान्तरन्यास को सादृश्य के भेद के रूप में स्वीकार किया गया है । शब्दार्थगत अलङ्कार
(१) प्रशस्ति, (२) कान्ति. (३) औचित्य, (४) संक्षेप, (५) यावदर्थता तथा (६) अभिव्यक्ति ।
अग्निपुराणकार की शब्दालङ्कार-धारणा प्राचीन आचार्यों की धारणा से अभिन्न है। अनुप्रास तथा यमक के विविध भेदों का विवेचन प्राचीन पद्धति पर ही किया गया है। यमक-भेद चित्रालङ्कार के सन्दर्भ में प्रहेलिका के स्वरूप का विवेचन आचार्य दण्डी के 'काव्यादर्श' में हो चुका था। रुद्रट ने केवल बौद्धिक चमत्कार का प्रदर्शन कराने वाले प्रहेलिका आदि अलङ्कारों को क्रीड़ामात्र में उपयोगी स्वीकार किया। ऐसे अलङ्कारों में उन्होंने प्रहेलिका के अतिरिक्त ( मात्रा या बिन्दु के ) च्युतक ( कारक, क्रिया ) गूढ, प्रश्न, उत्तर आदि का उल्लेख किया था ।४ रुद्रट के गूढ को ही 'अग्निपुराण' में गुप्त कहा गया है। प्रश्न, प्रहेलिका, च्युत आदि की धारणा रुद्रट की धारणा से अभिन्न है । समस्यापूत्ति गोष्ठियों में श्लोकांश के आधार पर विभिन्न कवियों के द्वारा श्लोक-रचना की एक विशेष प्रक्रिया थी। उसे
१. अग्निपुराण, अध्याय ३४३ २. वही, अध्याय ३४४ ३. वही, अध्याय ३४५ ४. रुद्रट, क व्यालङ्कार, ५, २४