________________
२८६ ]
अलङ्कार-धारणाः विकास और विश्लेषण
- कल्पित है । ' ( अप्रस्तुतप्रशंसा से इसका भेद इतना ही है कि इसमें धर्मी प्रस्तुत होता है ।) इसमें सादृश्य अन्यार्थ प्रतीति का हेतु होता है । • श्रनुज्ञा
दोष में गुण देख कर दोष की ही अभ्यर्थना करने में अनुज्ञा नामक अलङ्कार का सद्भाव माना गया है । २ आचार्य भरत ने दोष का अपसारण कर गुण की योजना किये जाने में कार्य लक्षण माना था । अनुज्ञा अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना का स्रोत उक्त लक्षण के स्वरूप में माना जा सकता है । मुद्रा
मुद्रा की काव्यालङ्कार के रूप में स्वीकृति मात्र नवीन है, इसकी धारणा 'प्राचीन ही है । नाटक में प्रकृतार्थपरक पद से सूच्य अर्थ की सूचना पर विचार होता रहा था । वह नाटक का तत्त्व काव्य के अलङ्कार के रूप में • स्वीकार कर लिया गया है । भोज ने मुद्रा की गणना शब्दालङ्कार के रूप में की थी ।
रत्नावली
जिन पदार्थों का सहपाठ प्रसिद्ध है उनका प्रसिद्धि क्रम के अनुसार विन्यास होने पर रत्नावली नामक अलङ्कार होता है ।" उद्योतकार ने इसे स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं माना है । वे रूपक का ही इसमें सौन्दर्य मान कर इसे रूपक में अन्तर्भुक्त मानते हैं; किन्तु इसमें अर्थों की प्रसिद्धि क्रम से योजना पर बल १. निदर्शनाललितयोस्तु स्वरूपावैलक्षण्यं प्रदर्शितमेवेत्येकालङ्कारत्वमेवेत्याहु: । —जगन्नाथ रसगंगाधर, पृ० ७६५ २. दोषस्याभ्यर्थनानुज्ञा तत्रैव गुणदर्शनात् ।
- अप्पय्य, कुवलयानन्द, १३७
२३. यत्रापसारयन् दोषं गुणमर्थेन योजयेत् । भवाददोषाद्वाकार्यं तल्लक्षणं विदुः ।
— भरत, नाट्यशास्त्र १६, ३७ ४. द्रष्टव्य—– भोज, सरस्वती - कण्ठाभरण, २, ८२ ५. क्रमिकं प्रकृतार्थानां न्यासं रत्नावलीं विदुः ।
- अप्पय्य, कुवलयानन्द, १४० ६. इदमपि न पृथगलङ्कारान्तरम्, यतोऽत्र वर्ण्यस्य रूपकेणैवोपस्कारो न तुमकृतोऽपि इत्युद्योतकारादिभिरुक्तम् ।
— वही, अलङ्कार- चन्द्रिका व्याख्या, पृ० १५८