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अलङ्कार-धारणा का विकास [२९३ में सदोष वस्तु में गुण की कल्पना कर उसकी स्पृहा की जाती है, सिरस्कार में इसके विपरीत प्रसिद्ध गुण वाली वस्तु में दोष की कल्पना कर उसे अवाञ्छनीय बताया जाता है ।' आचार्य भरत ने गर्हण नामक लक्षण में दोष में गुण तथा गुण में दोष-प्रदर्शन की कल्पना की थी। तिरस्कार की कल्पना का मूल उक्त लक्षण में माना जा सकता है। जगन्नाथ के शेष अलङ्कार प्राचीन ही हैं। ___ इस विवेचन से स्पष्ट है कि पण्डितराज ने अलङ्कार-विवेचन में जिन उक्तिभङ्गियों की कल्पना की है, उनसे प्राचीन आचार्य अनभिज्ञ नहीं थे।
विश्वेश्वर पण्डित पण्डितराज जगन्नाथ के बाद संस्कृत साहित्यशास्त्र में मौलिक चिन्तन की प्रवृत्ति समाप्त हो गयी। उनके बाद के आचार्यों का उद्देश्य साहित्य के विभिन्न अङ्गों को सुबोध बना कर संस्कृत के अध्येताओं के लिए प्रस्तुत करनामात्र रह गया । विश्वेश्वर पण्डित ऐसे ही आचार्यों में से एक थे। उन्होंने तीन ग्रन्थों में अलङ्कार के स्वरूप का विवेचन किया है। 'अलङ्कार कौस्तुभ', 'अलङ्कार-मुक्तावली' तथा 'अलङ्कार-प्रदीप'; इन तीन ग्रन्थों में अलङ्कार के स्वरूप-विवेचन में उनका उद्देश्य स्पष्ट है। विभिन्न स्तरों के पाठकों की रुचि
और योग्यता का ध्यान रख कर उन्होंने उक्त तीन ग्रन्थों की रचना की है। 'अलङ्कार-मुक्तावली' अलङ्कार-शास्त्र में प्रवेश करने वाले पाठकों के लिए लिखी गयी थी। 'अलङ्कार-कौस्तुभ'में एकसठ अलङ्कारों का विशद निरूपण किया गया। 'अलङ्कारप्रदीप' में एक सौ उन्नीस अलङ्कारों का विवेचन किया गया। ‘अलङ्कारकौस्तुभ' में विश्वेश्वर ने एकसठ अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार कर पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित अन्य पचीस अलङ्कारों में से कुछ का उन्हीं में अन्तर्भाव माना है तथा कुछ के अलङ्कारत्व का खण्डन किया है। यह विलक्षण बात है कि एक ही आचार्य एक ग्रन्थ में एक सौ उन्नीस अलङ्कारों का विवेचन करे और दूसरे ग्रन्थ में उनमें से अनेक के अलङ्कारत्व का अथवा १. एवं दोषविशेषानुबन्धाद्गुणत्वेन प्रसिद्धस्यापि द्वषस्तिरस्कारः ।
-वही, पृ० ८०७ २. द्रष्टव्य-भरत, ना० शा०, अभिनव भारती में उद्धृत, पृ० ३१५