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अलङ्कार-धारणा का विकास
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उस पर अनुकम्पा की जाय या उसकी निन्दा की जाय वहीं प्रतीप अलङ्कार होता है । ' उपमेय का वैशिष्ट्य ख्यापन इस अलङ्कार में मम्मट को भी अभिमत है । वे इसके लिए उपमेय के सद्भाव में उपमान की व्यर्थता का प्रतिपादन तथा उपमान का तिरस्कार करने के लिए उपमेय के रूप में उसकी कल्पना प्रतीप का लक्षण मानते हैं । मम्मट की यह प्रतीप - धारणा आचार्य दण्डी के विपर्यासोमा के समान है । मम्मट के विशेष और तद्गुण अलङ्कार रुद्रट के एतत्संज्ञक अलङ्कारों से अभिन्न हैं । संसृष्टि और सङ्कर की धारणा प्राचीन है । भामह से लेकर रुद्रट तक एकाधिक अलङ्कारों के एकत्र सन्निवेश की दो प्रक्रियाओं - तिलतण्डुल न्याय से तथा नीरक्षीर न्याय से पर संसृष्टि तथा सङ्कर संज्ञा से सविस्तर विवेचन हो चुका था । मम्मट ने दोनों की पृथक्-पृथक् सत्ता स्वीकार की तथा उनके प्राचीन लक्षण को ही स्वीकार किया ।
स्पष्ट है कि उक्त अलङ्कारों के लक्षण-निरूपण में मम्मट पर भामह, उद्भट तथा रुद्रट की अलङ्कार-धारणा का प्रभूत प्रभाव पड़ा है । भामह और उद्भट की अलङ्कार-धारणा बहुत कुछ समान है । अतः मम्मट की धारणा पर 'पड़ने वाले प्रभाव को दृष्टि से उक्त दो आचार्यों की धारणा को एक सामान्य स्रोत माना जा सकता है । मम्मट को प्रभावित करने वाला दूसरा प्रबल स्रोत रुद्रट का 'काव्यालङ्कार' है ।
कुछ पूर्व प्रचलित अलङ्कारों को नाम्ना स्वीकार कर मम्मट ने कुछ नवीन रूप से उन्हें परिभाषित किया है । वे अलङ्कार हैं— (क) समुच्चय और ( ख ) व्याघात । इनकी स्वरूप कल्पना का स्रोत अन्वेष्टव्य है ।
समुच्चय
समुच्चय की प्रकृति की कल्पना का आधार आचार्य दण्डी की समुच्चयोपमा की धारणा है । मम्मट ने रुद्रट की समुच्चय- परिभाषाओं को दृष्टिगत रखते हुए प्रस्तुत अलङ्कार को कुछ भिन्न रूप से परिभाषित किया है । वे रुद्रट के ‘सद्योग समुच्चय', 'असद्योग समुच्चय' तथा 'सदसद्योग समुच्चय' के पृथक्-पृथक् लक्षण को अस्वीकार कर एक ही व्यापक परिभाषा में उन्हें आबद्ध करना चाहते थे । इसीलिए उन्होंने यह कल्पना की कि जहाँ प्रस्तुत कार्य के एक साधक के रहने पर अन्य साधकों के सद्भाव की भी कल्पना की
१. रुद्रट, काव्यालङ्कार, ८,७६