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अलङ्कार-धारणा का विकास
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'मतानुसार किया गया है । व्यतिरेक की धारणा भामह, उद्भट तथा रुद्रट की धारणा से मिलती-जुलती ही है । उद्भट और रुद्रट ने उपमान से उपमेय के आधिक्य - वर्णन में तथा उपमेय से उपमान के आधिक्य - कथन में व्यतिरेक. अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया था । इस प्रकार मम्मट के पूर्व व्यतिरेक के उक्त दो प्रकार प्रचलित थे । मम्मट ने केवल उपमान से उपमेय के अधिक्य - वर्णन में ही व्यतिरेक माना है । उपमान में उपमेय की अपेक्षा आधिक्य तो स्वीकृत ही रहता है; इसीलिए तो उपमेय की प्रभाव वृद्धि के लिए उपमान से उसकी तुलना की जाती है ! सम्भव है कि उपमान का आधिक्य स्वतः सिद्ध होने के कारण मम्मट ने उपमानाधिक्य रूप व्यतिरेक की कल्पना आवश्यक नहीं समझी हो । उन्होंने उपमेय के आधिक्य वर्णन की विभिन्न प्रक्रियाओं के आधार पर व्यतिरेक के चौबीस प्रकारों की कल्पना की है । आक्षेप के स्वरूप की कल्पना भामह और उद्भट के मतानुसार की गयी है । विभावना का प्रतिपादन भामह, उद्भट तथा रुद्रट की पद्धति पर किया गया है । आचार्य मम्मट की विशेषोक्ति उद्भट की विशेषोक्ति से अभिन्न है । यथासंख्य और अर्थान्तरन्यास के स्वरूप का विवेचन करने में मम्मट भामह, उद्भट तथा रुद्रट से सहमत हैं । विरोध की स्वरूप - कल्पना का आधार भामह तथा दण्डी की विरोध-धारणा है । दण्डी के 'काव्यादर्श' की 'कुसुमप्रतिमा' - टीका में विरोध लक्षण की व्याख्या करते हुए टीकाकार: ने कहा है कि इसमें वास्तविक अविरोध के होने पर भी विरोध-सा दिखाया जाता है । अतः, इसे विरोध या विरोधाभास कहा जाता है । मम्मट की धारणा इससे अभिन्न है । मम्मट ने स्वभावोक्ति की प्रकृति का निरूपण भी भामह, उद्भट और रुद्रट की धारणा के अनुरूप ही किया है । रुद्रट ने जा व्यपदेश से जिस अलङ्कार का विवेचन किया है, वह मम्मट की स्वभावोक्ति से नाम्ना ही भिन्न है, प्रकृत्या अभिन्न है । मम्मट की व्याजस्तुति का स्वरूप भामह तथा उद्भट की व्याजस्तुति के स्वरूप से बहुत कुछ मिलता-जुलता है । भामह और उद्भट ने निन्दामुखेन की जाने वाली स्तुति को व्याजस्तुति का लक्षण माना था । मम्मट ने इस लक्षण को तो स्वीकार किया ही, इसके वैपरीत्य के आधार पर आपाततः की जाने वाली स्तुति का तत्त्वतः निन्दा में पर्यवसान होने के स्थल में भी व्याजस्तुति अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार
१. वास्तव विरोधाभावेऽपि विरोधप्रयोजकत्वात् विरोधः [ विरोधाभास ] इति नामालङ्कारः । - काव्यादश, कुसुम प्र०, पृ० २५४
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