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अलङ्कार-धारणा का विकास
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पण्डितराज जगन्नाथ-जैसे समर्थ आचार्य ने अनेक स्थलों पर रत्नाकरकार का मत उद्धृत किया है।' यद्यपि जगन्नाथ ने अधिकतर शोभाकर की अलङ्कार-विषयक मान्यता का खण्डन करने के लिए ही उल्लेख किया है, फिर भी यह शोभाकर की अलङ्कार-धारणा की शक्ति का ही परिचायक है। इससे कम-से-कम इतना तो सिद्ध ही है कि जगन्नाथ पण्डितराज ने शोभाकर के अलङ्कार-सिद्धान्त को उपेक्षणीय नहीं माना। 'अलङ्कार-रत्नाकर' के अलङ्कार-विवेचन का महत्त्व इस बात से भी स्पष्ट है कि अर्वाचीन आलङ्कारिकों को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले आचार्य अप्पय्य दीक्षित ने कुछ अलङ्कार या अलङ्कार-विशेष के कुछ भेदों का स्वरूप वहीं से लिया है। उदाहरणार्थ, अप्पय्य की अपह्नति का पर्यस्त भेद ( उपमान का अपह्नव ) 'अलङ्काररत्नाकर' से ही गृहीत है। लगता है कि शोभा कर के 'अलङ्कार-रत्नाकर' का कुछ दिनों तक संस्कृत कवियों तथा अलङ्कार शास्त्र के आचार्यों पर बहुत प्रभाव रहा था। कहा जाता है कि 'यशस्कर' नामक कवि ने 'अलङ्कार-रत्नाकर' के विभिन्न अलङ्कार-लक्षणों के उदाहरण के रूप में ही देवीशतक की रचना की थी। ऐसी स्थिति में डॉ० डे ने जो शोभाकर मित्र की गणना गौण आलङ्कारिकों की कोटि में कर ली है, वह उचित नहीं जान पड़ती। यह बात दूसरी है कि शोभाकर ने नवीनता-प्रदर्शन के मोह में अनेक प्राचीन अलङ्कारों के लिए नवीन संज्ञाओं की कल्पना कर ली थी तथा कुछ ऐसी उक्तियों में अलङ्का रत्व मान लिया था, जिनमें वस्तुत: चमत्कार का तत्त्व नहीं था और फलतः उनकी मान्यता पीछे चल कर अस्वीकृत हो गयी, पर इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि उनके अलङ्कार-सिद्धान्त ने अनेक कवियों को प्रभावित किया और अनेक सशक्त समीक्षकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट
१. रसगङ्गाधर में ग्यारह स्थलों पर अलङ्काररत्नाकर-कार की तत्तदलङ्कार
विषयक मान्यता को उद्धृत कर उसकी समीक्षा की गयी है। २. ...Yasaskara, a Kasmirian poet, thought it fit to comrose
a Devisataka. .... .in which each verse, besides being a panegyric of the goddess, also serves as an illustration of Ratnakara's Alankarasutras.
-अलङ्कार-रत्नाकर की भूमिका, पृ० ६, ले० देवधर ३. द्रष्टव्य-डॉ० सुशीलकुमार डे, History of Sanskrit Poetics,
खण्ड १ पृ० ३०८: