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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १८९ रुद्रट आदि की एतद्विषयक धारणा के समान ही है । दण्डी ने श्रत्यनुप्रास को माधुर्य गुण का एक प्रधान भेद मान कर काव्य में उसे बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया था। भोज ने उसी के आधार पर सामान्य रूप से अनुप्रास अलङ्कार की प्रशंसा बहुत बढ़ा-चढ़ा कर की है । ' भोज की वृत्त्यनुप्रास-धारणा कुछ नवीन है । इसमें समान वर्ग के वर्णों की आवृत्ति होती है । यह वर्णानुप्रास का ही एक विशेष रूप है । भोज ने इसके विभिन्न रूपों को विभिन्न प्रदेशों से सम्बद्ध किया है; किन्तु यह विवेचन प्रमाण- पुष्ट नहीं है । चित्र अलङ्कार के बहुविध भेदों की कल्पना का आधार रुद्रट की चित्र-मीमांसा है । भोज ने श्लेष के छह भेद ही स्वीकार किये हैं । रुद्रट के आठ श्लेष - भेदों में से वर्णगत एवं लिङ्गगत भेदों को भोज ने स्वीकार नहीं किया है । वे वर्णश्लेष का पदश्लेष में तथा लिङ्गश्लेष का प्रकृतिश्लेष में अन्तर्भाव मानते थे ।
वाकोवाक्य
उक्ति-प्रत्युक्ति को भोज ने वाकोवाक्य अलङ्कार माना है । इस प्रकार वार्तालाप ही अलङ्कार मान लिया गया । वार्त्तालाप के प्रकारों के आधार पर इस अलङ्कार के छह भेद कल्पित हुए — ऋजूक्ति, वक्रोक्ति, वैयात्योक्ति, गूढोक्ति, प्रश्नोत्तरोक्ति तथा चित्रोति । कहने की आवश्यकता नहीं कि वक्रोक्ति की धारणा प्राचीन है और उसे भोज के पहले ही अलङ्कार में स्वतन्त्र अस्तित्व मिल चुका था । कुन्तक ने उसे व्यापक अर्थ में अलङ्कार मान कर, काव्य में आत्मा का महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया था । भोज ने उसे शब्दालङ्कार के एक विशेष भेद के रूप में सीमित कर दिया । उन्होंने उसके निर्व्यूढ और अनिव्यूढ; इन दो उपभेदों की कल्पना को है । ऋजूक्ति के ग्राम्या तथा उपनागरिका भेद प्राचीन आचार्यों की वृत्ति धारणा के आधार पर कल्पित हैं । स्पष्ट है कि भोज ने प्राचीन आलङ्कारिकों को काव्य-तत्त्वविषयक धारणा को ही मिला-जुला कर इस नवीन अभिधान वाले अलङ्कार की कल्पना कर ला है । वतुतः उक्ति-प्रत्युक्ति अपने आप में अलङ्कार नहीं, उसमें दूसरे अलङ्कार भले रह सकते हैं । उक्ति-प्रत्युक्ति की विशेष भङ्गिमा
१. यथा ज्योत्स्ना चन्द्रमसं यथा लावण्यमङ्गनाम् ।
अनुप्रासस्तथा का यमलङ्कत्त 'मयं क्षमः ॥ - वही, २,२४६
२. उक्तिप्रत्युक्तिमद्वाक्यं वाकोवाक्यं बिदुर्बुधाः । - वही, २,१४३