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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
स्वरूप भरत के प्राप्ति तथा परिदेवन के पाठ भेद सिद्धि लक्षणों के स्वरूप के आधार पर कल्पित है । भरत के अनुसार जहाँ अवयव को देख कर भाव का अनुमान हो जाय, वहाँ प्राप्ति लक्षण होता है ।' अभिनव गुप्त ने भरत की प्राप्ति- परिभाषा में प्रयुक्त भाव का अर्थ सद्भाव या सत्ता मान कर उसके उदाहरण में अभिज्ञान शाकुन्तलम् का वह प्रसिद्ध श्लोक उद्धृत किया है जिसमें दुष्यन्त शकुन्तला के पद चिह्न को देख कर उसके सद्भाव का अनुमान करता है । किन्तु, भरत के उक्त लक्षण की परिभाषा का व्याख्यान इस प्रकार भी किया जा सकता है कि वे प्राप्ति में अवयव को देख हृद्गत भाव का अनुमान कर लिया जाना अपेक्षित मानते थे । सम्भव है कि दण्डी ने प्राप्तिलक्षण की परिभाषा का यही अर्थ समझा हो और उसे सूक्ष्म व्यपदेश से अलङ्कारों के मध्य परिगणित कर लिया हो । परिदेवन लक्षण के प्राप्त पाठान्तर में वचन के अभाव में प्रस्ताव से ही समग्र अर्थ का बोध वाञ्छनीय माना गया है । 3 इङ्गित से भावबोध की सूक्ष्म धारणा इससे मिलती-जुलती है । किसी गोप्य विषय के किसी कारणवश कुछ प्रकट हो जाने पर किसी व्याज से उसका गोपन लेश अलङ्कार माना गया है । ४ स्पष्टतः इसमें दो तत्त्व हैं - किञ्चित् प्रकट वस्तु रूप का निगूहन तथा उस निगूहन के लिए बहाना बनाना । वस्तु स्वरूप के छिपाने का तत्त्व मिथ्याध्यवसाय लक्षण से तथा बहाना बनाने का तत्त्व कपट लक्षण से गृहीत है । मिथ्याध्यवसाय में विचार के अन्यथात्व - साधन पर बल दिया गया है तथा कपट में छलयुक्ति पर । दण्डी के अनुसार लेश अलङ्कार में प्रकट वस्तुरूप की अन्यथात्व-सिद्धि
१. दृष्ट्वैवावयवं किञ्चिद्भावो यत्रानुमीयते । प्राप्ति तामभिजानीयाल्लक्षणं नाटकाश्रयम् ।।
— भरत, ना० शा०, १६, ३२ २. यथा— अभ्युन्नता पुरस्तादवगाढा जघनगौरवात् इत्यादि - शाकु० ३, ५ । अत्र पदपंक्तिलक्षणमंशं दृष्ट्वानयात्र भवितव्यमिति शकुन्तलायाः सद्भावोऽनुमीयत इति । - अभिनव ना० शा० अ० भा०
पृ० ३१६
३. प्रस्तावेनैव शेषोऽर्थः कृत्स्नो यत्र प्रतीयते ।
वचनेन विना जातु सिद्धिः सा परिकीर्तिता ॥ - वही, पृ० ३२१ ४. लेशो लेशेन निभिन्नवस्तुरूपनिगूहनम् । दण्डी, काव्याद० २, २६५ ५. द्रष्टव्य — अभिनव, ना० शा० अ० भा०
पृ० ३०८ तथा
भरत, ना० शा ० १६, ३०