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अलङ्कार-धारणा का विकास
[८७ भी अनेक भेद किये गये हैं। उपमा, रूपक, आक्षेप, व्यतिरेक आदि अलङ्कारों के अङ्ग के रूप में तत्तदलङ्कारों के स्वरूप-विवेचन-क्रम में श्लेष के स्वरूप पर विचार किया जा चुका है। श्लेष के अन्य भेद निम्नलिखित हैं
अभिन्न-त्रिय श्लेष, अविरुद्धक्रिय श्लेष, विरुद्धक्रिय श्लेष, नियामक श्लेष, नियमाक्षेपरूपोक्तिश्लेष, अविरोधिश्लेष तथा विरोधिश्लेष ।' इन भेदों के लक्षण न देकर उदाहरणों से ही इनके स्वरूप के विषय में दण्डी ने अपना अभिमत प्रकट किया है।
___ अभिन्नक्रिय श्लेष के उदाहरण में एक क्रिया से दो वाक्यों का दीपन दिखाया गया है। यह धारणा भामह की दीपक अलङ्कार-धारणा पर आधृत है। टीकाकार नृसिंहदेव ने उक्त उदाहरण के आधार पर अभिन्नक्रिय श्लेष को दण्डी की तुल्ययोगिता का अङ्गभूत श्लेष माना है। उन्होंने इसे अन्य लोगों के मतानुसार दीपक का अङ्गभूत भी कहा है ।२ अविरुद्धक्रिय तथा विरुद्धक्रिय श्लेष-भेदों को भी नसिंह देव ने तुल्ययोगिता का ही अङ्ग माना है। नियामकश्लेष में जो नियम का तत्त्व है, वह दण्डी की मौलिक कल्पना है। नियमाक्षेपरूपोक्तिश्लेष की कल्पना में आक्षेप तथा दीपक अलङ्कारों के तत्त्वों का सहारा लिया गया है तथा नियम का तत्त्व भी मिला दिया गया है। अविरोधी तथा विरोधी श्लेष-प्रकारों की कल्पना विरोध की अभावात्मक एवं भावात्मक सत्ता के आधार पर की गई है। नृसिंह देव की यह उचित मान्यता है कि विरोधी श्लेष विरोध अलङ्कार का अङ्गभूत है।४ विशेषोक्ति
दण्डी की सामान्य विशेषोक्ति-धारणा भामह की धारणा से अभिन्न है। दण्डी ने उसके अनेक भेदों की कल्पना की है। वे भेद निम्नलिखित हैंगुणविशेषोक्ति, जातिविशेषोक्ति, क्रियाविशेषोक्ति, द्रव्यविशेषोक्ति तथा हेतु
१. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २, ३१४-१५ २. 'किञ्चात्र वक्ष्यमाणलक्षणस्तुल्ययोगितालङ्कारोऽपीति तनिर्वाहकत्वात्त
स्याङ्गभूतोऽयं श्लेषः । परे तु—एकयैव कर्षणक्रियया वाक्यद्वयदीपनाद् दीपकस्यायमङ्गभूत इत्याहुः ।'
-काव्याद०, कुसुम प्र० टीका पृ० २४३ ३. द्रष्टव्य-वही, पृ० २४३-४४ ४. ..."विरोधसार्थोऽयं श्लेषो विरोधाभासस्याङ्गम् ।—वही, पृ० २४६