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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विशेषोक्ति ।' भामह के विशेषोक्ति-लक्षण में ही गुण, जाति, क्रिया तथा द्रव्यमूलक विशेषोक्ति-भेदों की सम्भावना निहित थी । भामह की 'गुणान्तरसंस्थिति' में गुण से जाति, क्रिया आदि भी उपलक्षित थी । अतः दण्डी के विशेषोक्ति अलङ्कार के प्रथम चार भेदों का मूल भामह की विशेषोक्ति परिभाषा में ही माना जा सकता है। हेतुविशेषोक्ति में हेतुगर्भ विशेषण का प्रयोग होता है । इसमें विशेषोक्ति के साथ हेतु के तत्त्वों का मिश्रण है । हेतुधारणा के स्रोत पर विचार किया जा चुका है ।
तुल्ययोगिता
भामह की तुल्ययोगिता से दण्डी की तुल्ययोगिता तत्त्वतः भिन्न नहीं है । दोनों ने प्रस्तुत अलङ्कार में उपमान तथा उपमेय में तुल्यकार्यक्रिया के प्रयोग पर बल दिया है । भामह ने न्यून की विशिष्ट के साथ गुण-साम्य-विवक्षा में ही तुल्ययोगिता अलङ्कार माना था । दण्डी ने इस धारणा को स्वीकार कर उसमें अपनी ओर से भी कुछ जोड़ा है । निन्दा में तुल्ययोगिता की धारणा नवीन है । इसमें निन्दा का तत्त्व भरत की उपमा के निन्दा भेद से गृहीत है । भरत के दीपक अलङ्कार में सिद्धि लक्षण तथा निन्दोपमा के तत्त्वों के योग से तुल्ययोगिता के निन्दा - भेद की सृष्टि हुई है । इस प्रकार दण्डी की तुल्ययोगिता के दो भेदों में से स्तुति में तुल्ययोगिता भेद भामह की धारणा से अभिन्न है तथा निन्दा में तुल्ययोगिता भेद भरत की अलङ्कार एवं लक्षण-धारणा के आधार पर कल्पित है ।
विरोध
aust की सामान्य विरोधालङ्कार-धारणा भामह की विरोध-धारणा के समान है । दण्डी ने उसके निम्नलिखित भेदों का सोदाहरण उल्लेख किया हैक्रियाविरोध, गुणविरोध ( वस्तुगत गुण- विरोध तथा अवयवगत गुणविरोध ), विषमविरोध ( गुण तथा क्रिया का विरोध ), असङ्गतिविरोध अथवा अभावात्मक क्रियाविरोध तथा श्लेषमूल - विरोध । २ ये भेद भामह की विरोध-धारणा के आधार पर ही कल्पित हैं । भामह ने गुण या क्रिया का विरुद्ध क्रिया से अभियान विरोध का लक्षण माना है । दण्डी के गुण-विरोध
१. द्रष्टव्य —— दण्डी, काव्याद०, २, ३२३-२६
२. द्रष्टव्य — दण्डी, काव्याद०, २, ३३३-३६