________________
अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ee अर्थ के साथ उसका ( वर्ण्य का ) साम्य-प्रदर्शन वाञ्छनीय माना है ।" उद्भट के दृष्टान्त अलङ्कार में वर्ण्य अर्थ के प्रतिबिम्ब के रूप में अन्य अर्थ के वर्णन पर बल दिया गया है । २ दोनों आचार्यों की दृष्टान्त- कल्पना का उद्देश्य समान है । प्राकरणिक अर्थ से मिलते-जुलते अन्य अर्थ के वर्णन से उस ( प्राकरणिक ) अर्थ की प्रभाव-वृद्धि दोनों को अभिप्र ेत है । स्पष्ट है कि उद्भट की दृष्टान्त-अलङ्कार-धारणा भरत की दृष्टान्त-लक्षण - धारणा से भूरिशः प्रभावित है |
काव्यलिङ्ग
प्रस्तुत अलङ्कार की परिभाषा में कहा गया है कि जहाँ एक सुना हुआ अर्थ अन्य अर्थ की स्मृति या किसी वस्तु की अनुभूति का हेतु बनता हो वहाँ काव्यलिङ्ग अलङ्कार होता है । 3 इसे काव्यहेतु संज्ञा से भी अभिहित किया गया है । उद्भट के काव्यलिङ्ग का स्वरूप भरत के हेतु लक्षण के स्वरूप से मिलता-जुलता है । दण्डी ने हेतु को अलङ्कार माना था । उद्भट ने हेतु का उल्लेख नहीं कर काव्यलिङ्ग की कल्पना की । मम्मट आदि परवर्ती आचार्यों भी हेतु की जगह काव्यलिङ्ग को ही स्वीकार किया है ।
छेकानुप्रास
उद्भट ने ही सर्वप्रथम छेकानुप्रास अलङ्कार का उल्लेख किया । उन्होंने इसे अनुप्रास अलङ्कार के प्रकार के रूप में परिगणित नहीं कर स्वतन्त्र अलङ्कार स्वीकार किया है । उनके अनुसार एक-से स्वर- व्यञ्जन - समुदाय का एकत्र दो बार उच्चारण छेकानुप्रास है । " भामह ने अनुप्रास अलङ्कार
१. विद्वान् पूर्वोपलब्धौ यत्समत्वमुपपादयेत् । निदर्शनकृतस्तज्ज्ञैः स दृष्टान्त इति स्मृतः ॥
२. इष्टस्यार्थस्य विस्पष्टप्रतिबिम्ब निदर्शनम् । वादिपदैः शून्यं बुधैर्दृष्टान्त उच्यते ॥
- भरत, ना० शा० १६, २५
— उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, ६, १६
-
३. श्रुतमेकं यदन्यत्र स्मृतेरनुभवस्य वा । तां प्रतिपद्यत काव्यलिङ गं तदुच्यते ।। वही, ६, ७ ४. तुलनीय, भरत, नाट्यशास्त्र, १६, १४ ५. छेकानुप्रासस्तु द्वयोर्द्वयोः सुसदशोक्तिकृतौ ।
- उद्भट, काव्यालं० सार सं० १,