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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ११७ स्वरूप में कोई नवीनता उद्भट ने नहीं लायी । उन्होंने उक्त अलङ्कारों के सम्बन्ध में प्राचीन आचार्यों की मान्यता को ही स्वीकार किया है ।
उपरि विवेचित अलङ्कारों को छोड़ उद्भट के शेष अलङ्कारों के लक्षण भामह के 'काव्यालङ्कार' से अक्षरशः उद्धृत हैं ।
पूर्ववर्ती आचार्यों की अलङ्कार-धारणा के साथ उद्भट की अलङ्कारविषयक मान्यता के इस तुलनात्मक अध्ययन से हम निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं
(क) उद्भट के 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' में जितने अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन हुआ उनमें से अधिकांश का मूलाधार भरत, भामह तथा दण्डी की धारणा में ही है । भरत काव्य-लक्षण की स्वरूप-मीमांसा के क्रम में उद्भट के अनेक अलङ्कारों के स्वरूप से मिलते-जुलते स्वरूप वाली उक्तियों पर पहले ही विचार कर चुके थे । उद्भट के दृष्टान्त अलङ्कार का प्राक्-रूप भरत का दृष्टान्त लक्षण इस कथन का प्रमाण हैं । भामह के अधिकांश अलङ्कारों के स्वरूप को तो उद्भट ने यथावत् स्वीकार कर लिया है ।
(ख) भरत ने रस, भाव आदि के विवेचन-क्रम में काव्य के जिन तत्त्वों का निरूपण किया था, उनके आधार पर भी उद्भट ने कुछ अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना की है । इस प्रकार रस, भाव आदि के आधार रसवत्, प्रय आदि अलङ्कारों की कल्पना उन्होंने कर ली ।
(ग) उद्भट ने प्राचीन आचार्यों के अलङ्कारों के नवीन भेदोपभेदों का विवरण दिया है, जिनकी सम्भावना प्रायः प्राचीनों के तत्तदलङ्कार के सामान्य लक्षणों में ही निहित थी ।
(घ) पूर्ववर्ती आचार्यों के कुछ अलङ्कारों के स्वरूप को उद्भट ने अधिक स्पष्ट रूप में 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' में प्रस्तुत किया है । अतः, कुछ अलङ्कारों की परिभाषा के परिष्कार का श्रेय उद्भट को अवश्य मिलना चाहिए ।
(ङ) उद्भट के अलङ्कार - विवेचन की तुलना में भरत की परिमित अलङ्कार-संख्या पर दृष्टिपात करने से आपाततः भरत का अलङ्कार - विवेचन अपरिपक्व जान पड़ेगा; किन्तु तथ्य यह है कि उन्होंने अनेक उक्ति-भङ्गियों को -काव्य - लक्षणों के क्षेत्र में परिभाषित किया था, जिनपर पीछे चलकर अलङ्कार के सन्दर्भ में विचार होने लगा । भरत के लक्षण, गुण, अलङ्कार, रस, भाव आदि के सिद्धान्तों का सहारा लेकर उद्भट ने अनेक अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना की है ।