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१७६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण आह्लादजनक होकर रस के समान हो जाता है उसे रसवत् अलङ्कार कहते हैं । रस के समान आह्लादकारी होने के कारण यह अलङ्कारों में मूर्धन्य स्थान का अधिकारी है।' कुन्तक ने उक्त अलङ्कार के सर्वथा नवीन स्वरूप की उद्भावना का दावा किया है। किन्तु, उनके रसवत्-लक्षण के परीक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी मान्यता पर पूर्वाचार्यों के विचारों का प्रचुर प्रभाव पड़ा है। कुन्तक की रसवत्-परिभाषा में इस तथ्य की स्पष्ट स्वीकृति है कि काव्य में सरसता का आधान करने वाला रस के समान आह्लादकारी कोई भी अलङ्कार रसवत् कहा जा सकता है। उन्होंने स्वयं रसवत् के उदाहरण में एकत्र रूपक को तथा अपरत्र उत्प्रेक्षा को रसवत् कहा है। रूपक और उत्प्रेक्षा आदि सामान्य अलङ्कार भी होते हैं और रसवत् भी। प्रस्तुत अर्थ से अप्रस्तुत की सरस व्यञ्जना के स्थल में कुन्तक रूपक आदि रसवत् अलङ्कार का सद्भाव मानेंगे। इस अंश में उनकी रसवत्-धारणा प्राचीन आचार्यों की समासोक्ति-धारणा के समकक्ष मानी जा सकती है। यह रसवत् तत्त्वतः एक स्वतन्त्र अलङ्कार न होकर अलङ्कारों का एक विशेष वर्ग सिद्ध होता है। इस वर्ग में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि सभी सुन्दर अलङ्कार रखे जा सकते हैं। सामान्य उपमा, रूपक आदि से इस वर्ग के उपमा, रूपक आदि का व्यावर्तक इस वर्ग के अलङ्कारों की रसमयता है। विचारणीय यह है कि उपमा, रूपक आदि रसवदलङ्कारों को रसवत्व का विधायक और आह्लादजनक कहना कहाँ तक उचित है। कुन्तक ने अलङ्कार को शब्द और अर्थ का धर्म स्वीकार किया है । वे अलङ्कार्य-भूत रस के उपकारक-मात्र हो सकते हैं; रसाधायक नहीं। काव्य-सौन्दर्य की व्यञ्जना में काव्याङ्गों के समन्वित योग के सिद्धान्त को मानने पर भी कुन्तक ने अलङ्कार्य-अलङ्कार आदि का व्यावहारिक भेद स्वीकार किया ही है। अतः अलङ्कार को अलङ्कार्य का आधायक कहना उनके मतानुसार भी उपपन्न नहीं होगा। उनकी मान्यता यह जान पड़ती है कि जो अलङ्कार शब्दार्थ में इतना उत्कर्ष ला दे कि वह रसमय काव्य-सा आह्लादकारी हो जाय वह (रस के सदृश आनन्ददायक होने के कारण) रसवत् अलङ्कार है। कुन्तक न तो रसवत् अलङ्कार को रस का हेतु मानते थे न उससे अभिन्न । वे उसे रस के समान महत्त्व देना चाहते थे। अलङ्कार सौन्दर्य-बोध में उत्कर्ष लाते हैं। वे शब्द और अर्थ को अलङ कृत कर काव्य के आत्मतत्त्व का भी उपकार
१. कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित, ३,१४-१५