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१७४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अलङ्कार्य मानना ही समीचीन है। उपमारूपक का अलङ्कारत्व उपपन्न नहीं।' इसलिए कुन्तक ने उक्त अट्ठाईस अलङ्कारों को ही परीक्षणीय समझा। ऊर्जस्वी ___दण्डी, भामह, उद्भट आदि पूर्ववर्ती आचार्यों के ऊर्जस्वी-लक्षण को कुन्तक ने अमान्य बताया है। उनकी मान्यता है कि काम-क्रोध आदि मनोविकार के कारण रस-परिपाक के बाधित होने के स्थल में ऊर्जस्वी नामक अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार करना समीचीन नहीं। ये मनोविकार रसभङ्ग के ही हेतु होते हैं। उनसे अलङ्कारत्व की सृष्टि नहीं होती। रसबोध में चित्त-वैशद्य की स्थिति सभी रसवादी आचार्यों ने स्वीकार की है। इस दशा में सत्त्व का उद्रेक रजस् एवं तमस् को पराभूत कर देता है। जब तक राजस एवं तामसभाव सत्त्व से सर्वथा अभिभूत नहीं हो जाते तब तक रस की चर्वणा सम्भव नहीं होती। काम, क्रोध आदि तामस भाव रसास्वाद में विघ्न उपस्थित करते हैं। रस-परिपाक की इस बाधित अवस्था में ही प्राचीनों ने ऊर्जस्वी अलङ्कार की सत्ता स्वीकार की थी।
रसवत्
दण्डी, भामह, उद्भट आदि की रसवत्-परिभाषाएं कुन्तक को मान्य नहीं। उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों की रसवत्-विषयक मान्यता का खण्डन कर स्वतन्त्र रूप से उसके लक्षण की कल्पना की है। दण्डी आदि आचार्यों ने रसमय काव्य में रसवत् अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया था। उन्होंने रस को अलङ्कार के एक भेद में समाविष्ट कर दिया था। कुन्तक अलङ्कार से रस का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करते थे। उनकी मान्यता थी कि रस को अलङ्कार नहीं मान कर अलङ्कार्य माना जाना चाहिए। रसमय वाक्य कोअलङ्कार्य को–अलङ कृत करने में ही अलङ्कार की सार्थकता है । अतः, रसवद् वाक्य को अलङ्कार मानना युक्तिसङ्गत नहीं। भामह तथा उद्भट की रसवदलङ्कार-धारणा का खण्डन करते हुए कुन्तक ने यह युक्ति दी है कि अलङ्कार और अलङ्कार्य की पृथक्-पृथक् सत्ता तो मानी ही जानी चाहिए। यदि काव्य में शृङ्गार आदि रस ही प्रधानतः वर्ण्यमान माना जाय तो वह अलङ्कार्य होगा
१. कुन्तक, वक्रोक्ति जीवित, ३,४४ तथा उसकी बृत्ति पृ०४७८-८१