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१३४ अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अर्थालङ्कार निम्नाङ्कित चार वर्गों में प्रस्तुत किये गये हैं
(क) वास्तव वर्ग-(१) सहोक्ति, (२) समुच्चय, (३) जाति या स्वभावोक्ति, (४) यथासंख्य, (५) भाव, (६) पर्याय, (७) विषम, (८) अनुमान, (६) दीपक, (१०) परिकर, (११) परिवृत्ति, (१२) परिसंख्या, (१३) हेतु, (१४) कारणमाला, (१५) व्यतिरेक, (१६) अन्योन्य, (१७) उत्तर, (१८) सार, (१९) सूक्ष्म, (२०) लेश, (२१) अवसर, (२२) मीलित और (२३) एकावली।
(ख) औपम्य वर्ग-(१) उपमा, (२) उत्प्रेक्षा, (३) रूपक, (४) अपह नुति, (४) संशय या सन्देह, (६) समासोक्ति, (७) मत, (८) उत्तर, (९) अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा, (१०) प्रतीप, (११) अर्थान्तरन्यास, (१२) उभयन्यास, (१३) भ्रान्तिमान्, (१४) आक्षेप, (१५) प्रत्यनीक, (१६) दृष्टान्त, (१७) पूर्व, (१८) सहोक्ति, (१६) समुच्चय, (२०) साम्य तथा (२१) स्मरण ।
(ग) अतिशय वर्ग-(१) पूर्व, (२) विशेष, (३) उत्प्रेक्षा, (४) विभावना, (५) तद्गुण, (६) अधिक, (७) विरोध, (८) विषम, (६) असङ्गति, (१०) पिहित, (११) व्याघात और (१२) अहेतु ।
(घ) (अर्थ) श्लेष वर्ग-(१) श्लेष । श्लेष-विवेचन के अनन्तर सङ्कर का उल्लेख हुआ है।
सहोक्ति, समुच्चय तथा उत्तर अलङ्कार वास्तव एवं औपम्य-दोनों वर्गों में पठित हैं । विषम तथा हेतु अलङ्कारों का उल्लेख वास्तव एवं अतिशय; इन दो वर्गों में हुआ है। उत्प्रेक्षा और पूर्व अलङ्कार औपम्य तथा अतिशय वर्गों में परिगणित हैं।
पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कार-विमर्श में कुछ नये अलङ्कारों को जोड़ देने में ही रुद्रट की काव्यालङ्कार-मीमांसा का वैशिष्टय नहीं है। रुद्रट ने जहाँ एक ओर अनेक नवीन अलङ्कारों की उद्भावना की वहाँ दूसरी ओर पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा विवेचित विंशत्यधिक अलङ्कारों का नाम्ना भी उल्लेख नहीं किया। रुद्रट के द्वारा कल्पित नवीन अर्थालङ्कारों के नाम वर्गकम से निम्नलिखित हैं :
(क) वास्तव वर्ग-समुच्चय, भाव, पर्याय, विषम, अनुमान, परिकर, परिसंख्या, कारणमाला, अन्योन्य, उत्तर, सार, अवसर, मीलित तथा एकावली।