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अलङ्कार-धारणा का विकास
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का नामोल्लेख कर उसके उदाहरण से उसके स्वरूप के सम्बन्ध में अपनी धारणा व्यक्त की थी । उन्होंने उसका लक्षण नहीं दिया था । दण्डी ने उक्त अलङ्कार का उल्लेख भी नहीं किया । उद्भट ने उसका लक्षण देकर उसके पाँच भेदों का स्पष्ट विवेचन किया है ।
(घ) पूर्ववर्ती अलङ्कारों से नामतः अभिन्न, किन्तु स्वरूपतः भिन्न अलङ्कार — इस वर्ग में प्र ेय, रसवत्, ऊर्जस्वी, समाहित, तुल्ययोगिता, विशेषोक्ति, व्याजस्तुति, निदर्शना, परिवृत्ति तथा स्वभावोक्ति अलङ्कार आते हैं । इन अलङ्कारों का पुनः दो उपवर्गों में विभाजन सम्भव है - ( अ ) समान अभिधान वाले प्राचीन अलङ्कारों से सर्वथा भिन्न स्वरूप वाले अलङ्कार तथा ( आ ) उनसे किञ्चित् भिन्न स्वरूप वाले अलङ्कार । प्रय, ऊर्जस्वी, समाहित तथा तुल्ययोगिता प्रथम उपवर्ग में और शेष द्वितीय उपवर्ग में माने जायँगे ।
(ङ) प्राचीन अलङ्कारों के समान सामान्य स्वरूप के होने पर भी नवीन भेदोपभेदों से युक्त अलङ्कार - अर्थान्तरन्यास, उत्प्र ेक्षा, ससन्देह, अतिशयोक्ति, उपमा तथा व्यतिरेक इस वर्ग में परिगणित किये जा सकते हैं । इन अलङ्कारों के सामान्य लक्षण, भामह तथा दण्डी की धारणा के अनुरूप ही दिये गये हैं; किन्तु उनके कुछ नवीन भेदोपभेदों की कल्पना कर ली गयी है ।
(च) पूर्ववर्ती आचार्यों की अलङ्कार - परिभाषा के आधार पर परिभाषित, किन्तु अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट स्वरूप वाले अलङ्कार – पर्यायोक्त, उदात्त, श्लिष्ट, रूपक तथा दीपक अलङ्कारों को इस वर्ग में मानना उचित होगा । दीपक के तीन भेद भामह की धारणा के अनुरूप ही कल्पित हैं; पर दीपक के सामान्य स्वरूप को अधिक स्पष्ट करने का प्रयास उद्भट ने किया है । बनहट्टी ने उद्भट के रूपक - लक्षण को भामह के रूपक - लक्षण से सर्वथा स्वतन्त्र माना है । मुझे यह मत युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ता । एक वस्तु पर अन्य वस्तु के आरोप का तत्त्व दोनों आचार्यों के रूपक - लक्षण में समान रूप से है । हाँ, रूपक के स्वरूप के स्पष्टीकरण के लिए उद्भट श्रेय के भागी अवश्य हैं ।
१. His ( Udbhata's ) definitions of the alankara and the varieties must have been, however, of his own invention for he is not indebted to Bhamaha in that respect. - काव्यालङ्कारः सार-संग्रह पर बनहट्टी का Notes पृ० २५
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