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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ६५ (२१) पर्यायोक्त, (२२) समाहित, (२३) उदात्त, (२४) श्लिष्ट, (२५) अपह्न ुति, (२६) विशेषोक्ति, (२७) विरोध, ( २८ ) तुल्ययोगिता, (२९) अप्रस्तुतप्रशंसा, (३०) व्याजस्तुति, (३१) निदर्शना, (३२) सङ्कर, (३३) उपमेयोपमा, (३४) सहोक्ति, (३५) परिवृत्ति, (३६) ससन्देह, (३७) अनन्वय, (३८) संसृष्टि (३६) भाविक, (४०) काव्यलिङ्ग तथा ( ४१ ) दृष्टान्त । इनमें से काव्यलिङ्ग, छेकानुप्रास, दृष्टान्त, पुनरुक्तवदाभास तथा सङ्कर ; ये पाँच अलङ्कार नवीन हैं । सेठ कन्हैयालाल पोद्दार की मान्यता है कि उद्भट -ने छह नवीन अलङ्कारों की उद्भावना की है । वे उक्त पाँच अलङ्कारों के साथ 'लाटानुप्रास' को भी उद्भट की नवीन कल्पना मानते हैं । किन्तु उद्भट के पूर्व भामह के 'काव्यालङ्कार' में अनुप्रास - विवेचन-क्रम में इस अलङ्कार का उल्लेख हो चुका था । भामह ने लाटीय अनुप्रास के लक्षण का उल्लेख नहीं करने पर भी उसका उदाहरण देकर उसके स्वरूप के सम्बन्ध में अपनी मान्यता व्यक्त की है । उद्भट ने उसी के सलक्षण पाँच भेदों का स्पष्टरूप में विवेचन किया है । अतः इसे उद्भट की नवीन उद्भावना मानने का पक्ष सबल नहीं। पोद्दार जी ने यह स्वीकार किया है कि 'लाटानुप्रास' और 'छेकानुप्रास' ये दो अनुप्रास के भेद हैं । इस प्रकार उन्होंने इन दो अलङ्कारों की सम्भावना पूर्वाचार्यों की अनुप्रास-धारणा में ही स्वीकार कर ली है । इन दोनों को समान रूप से पूर्ववर्ती आचार्यों के अनुप्रास-लक्षण से समुद्भूत मान लेना भी मुझे उचित नहीं जान पड़ता । दोनों की स्थिति भिन्न है । छेकानुप्रास का उल्लेख सर्वप्रथम उद्भट के काव्यालङ्कार में ही हुआ है, जबकि लाटानुप्रास का उल्लेख उनसे पूर्व भामह कर चुके थे । अतः उक्त दो अलङ्कारों में छेकानुप्रास को ही उद्भट की नूतन सृष्टि मानना युक्तिसङ्गत जान पड़ता है । सङ्कर के स्वरूप का सङ्क ेत दण्डी के सङ्कीर्ण के एक भेद के रूप में मिल जाता है, किन्तु उसका नाम्ना उल्लेख सर्वप्रथम उद्भट ने ही किया है । अतएव उसे उद्भट के नवीन अलङ्कारों के वर्ग में रखा गया है ।
उद्भट ने भामह के उत्प्रेक्षावयव तथा उपमारूपक अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार नहीं की है । दण्डी के आवृत्ति, लेश, सूक्ष्म तथा हेतु अलङ्कारों का भी उल्लेख उन्होंने नहीं किया है । यमक, भामह तथा दण्डी— दोनों आचार्यों
१. द्रष्टव्य – कन्हैयालाल पोद्दार, काव्यकल्पद्र ुम, द्वितीय भाग, अलङ्कार मञ्जरी का प्राक्कथन पृ० ङ
२. वही, पृ० ङ