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अलङ्कार-धारणा का विकास
[८६ तथा क्रिया-विरोध भामह के उक्त विरोध-लक्षण में ही अन्तर्भूत हैं। विषमविरोध में गुण एवं क्रिया का विरोध प्रदर्शित होता है। यह धारणा भी भामह के गुण-विरोध एवं क्रिया-विरोध के मिश्रित स्वरूप पर अवलम्बित है। क्रिया आदि की अभावात्मक सत्ता के आधार पर असङ्गति-विरोध की कल्पना की गयी है। 'काव्यादर्श' में असङ्गति-विरोध का जो उदाहरण दिया गया है उसमें क्रिया के अभाव से असङ्गति दिखायी गयी है। विरोध के साथ श्लेष अलङ्कार की धारणा को मिला कर श्लेष-विरोध के स्वरूप का निर्माण किया गया है। अप्रस्तुतप्रशंसा
भामह की अप्रस्तुतप्रशंसा-धारणा से दण्डी की अप्रस्तुतप्रशंसा-धारणा अभिन्न है। व्याजस्तुति
__ भामह की तरह दण्डी भी निन्दा के व्याज से की जाने वाली स्तुति को व्याजस्तुति का लक्षण मानते हैं। इसमें आपाततः किसी की निन्दा की जाती है ; किन्तु वह निन्दा परिणामतः स्तुति में पर्यवसित हो जाती है। शब्दश्लेष मूलक तथा अर्थश्लेषमूलक व्याजस्तुति भेदों के भी उदाहरण दिये गये हैं। स्पष्टतः इन भेदों में श्लेष अलङ्कार के तत्त्व व्याजस्तुति के साथ मिश्रित हैं। अन्य अलङ्कारों के योग से व्याजस्तुति के अनेक अन्य भेद भी हो सकते हैं।' निदर्शन ___ दण्डी की निदर्शन-परिभाषा भामह की परिभाषा से मिलती-जुलती है। सत् एवं असत् अर्थात् उत्कृष्ट एवं अनुत्कृष्ट फल के निदर्शन की दृष्टि से दण्डी ने निदर्शन के सत्फलनिदर्शन तथा असत्फलनिदर्शन-दो भेद स्वीकार किये हैं।२ भामह ने 'काव्यालङ्कार' में निदर्शन का जो उदाहरण दिया है, वह असदर्थनिदर्शन का उदाहरण है। दण्डी ने सत्फल-निदर्शन का भी उदाहरण १. इति श्लेषानुविद्धानामन्येषाञ्चोपलक्ष्यताम् ।
व्याजस्तुतिप्रकाराणामपर्यन्तस्तु विस्तरः ।।-वही, २, ३४७ २. अर्थान्तरप्रवृत्तेन किञ्चित् तत्सदृशं फलम् ।
सदसद्वा निदर्येत यदि तत्स्यान्निदर्शनम् ।।-वही, २, ३४८ .