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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
पर्यायोक्त
दण्डी की पर्यायोक्त-धारणा भामह की तद्विषयक धारणा से अभिन्न है। समाहित
भामह ने समाहित की परिभाषा नहीं दी है। उन्होंने उसका उदाहरण देकर उसके सम्बन्ध में जैसी मान्यता व्यक्त की थी, दण्डी ने वैसी ही मान्यता समाहित की परिभाषा में व्यक्त की है। अतः समाहित के सम्बन्ध में दोनों की धारणा अभिन्न है।
उदात्त __ भामह के द्वारा अंशतः अपरिभाषित उदात्त को दण्डी ने परिभाषित किया है। उनकी उदात्त-धारणा भामह की धारणा से भिन्न नहीं है। भामह ने उदात्त के एक उदाहरण में राम की उच्चाशयता का दिग्दर्शन कराया है। इसे दण्डी ने आशय-महत्त्व-वर्णन-परक उदात्त कहा है। भामह ने नानारत्नादियुक्त वर्णन को उदात्त का अपर रूप माना था, जिसे दण्डी ने विभूतिमहत्त्व-वर्णनमूलक उदात्त कहा है। इस प्रकार प्रस्तुत अलङ्कार के सम्बन्ध में दण्डी की धारणा पूर्ववर्ती आचार्य भामह की धारणा से मूलतः अभिन्न है । अपह्न ति
दण्डी के अपह्न ति अलङ्कार का सामान्य स्वरूप भामह की अपह्न ति के स्वरूप के समान है। दण्डी ने भामह की तरह ही यह माना है कि वर्णनीय वस्तु के धर्म का गोपन कर अप्रस्तुत के धर्म का प्रदर्शन अपह्न ति है। विषय तथा स्वरूप ( स्वतः सिद्ध धर्म ) के अपह्नव के आधार पर 'काव्यादर्श' में अपह्नति के विषयापह्न ति तथा स्वरूपापह्न ति—ये दो और भेद माने गये हैं। इन भेदों की कल्पना के लिए भामह के अपह्न ति-लक्षण में ही पर्याप्त अवकाश था। श्लिष्ट
दण्डी के श्लिष्ट अलङ्कार का सामान्य लक्षण भामह के श्लिष्ट-लक्षण से मिलता-जुलता है। दण्डी ने उसके मुख्य दो भेद स्वीकार किये हैं-अभिन्नपदश्लेष अर्थात् अभङ्गश्लेष तथा भिन्नपद अर्थात् सभङ्गश्लेष । श्लेष के अन्य