________________
अलङ्कार-धारणा का विकास
[८५ का प्रयास होता है और उसके लिए छल-युक्ति का सहारा लिया जाता है। स्पष्ट है कि उक्त दोनों लक्षणों के प्रमुख तत्त्वों से लेश अलङ्कार का रूपविधान हुआ है।
दण्डी ने लेश अलङ्कार के सम्बन्ध में अन्य लोगों की धारणा का निर्देश करते हुए कहा है कि कुछ लोग व्याज से की जाने वाली निन्दा अथवा स्तुति में लेश अलङ्कार मानते हैं।' स्तुति के व्याज से निन्दा तथा निन्दा के व्याज से स्तुति को लेश का लक्षण मानने वाले आचार्यों ने इसे व्याजस्तुति से अभिन्न मान लिया है। दण्डी इस मत से सहमत नहीं। वे निन्दामुखेन की जाने वाली स्तुति को व्याजस्तुति नामक पृथक् अलङ्कार मानते हैं। नृसिंहदेव के अनुसार निन्दापर्यवसायिनी स्तुति में भी व्याजस्तुति मानने का अवकाश दण्डी के उक्त लक्षण में ही है।३ व्याज से की जाने वाली निन्दा तथा स्तुति की धारणा भामह की व्याजस्तुति अलङ्कार-धारणा से गृहीत है । यथासंख्य ___ दण्डी का यथासंख्य अलङ्कार भामह के एतत्संज्ञक अलङ्कार से अभिन्न है ।
प्रेय, रसवत् तथा ऊर्जस्वी
भामह ने प्रेय, रसवत् तथा ऊर्जस्वी के लक्षण नहीं दिये हैं। दण्डी ने इन्हें लक्षण-बद्ध किया है।४ इन अलङ्कारों के सम्बन्ध में दण्डी की धारणा भामह की धारणा से अभिन्न है। दण्डी ने प्रेय का उदाहरण भी भामह के 'काव्यालङ्कार' से ही लिया है।५।
१. लेशमेके विदुनिन्दां स्तुतिं वा लेशतः कृताम् ।
-दण्डी, काव्याद०, २, २६८ २. यदि निन्दन्निव स्तौति व्याजस्तुतिरसौ स्मृता। वही, २, ३४३ ३. अत्र (लक्षणवाक्ये) 'निन्दन्निव स्तौतीति कथनात् प्रत्ययादिव्यत्ययेन
स्तुवन्निन्दतीति इत्यप्यों बोध्यः' तेन स्तुतिच्छलेन निन्दोक्तिरपि
व्याजस्तुतिः । -काव्याद०, कुसुम प्र० टीका, पृ० २५६ .. ४. प्रेयः प्रियतराख्यानं रसवद्रसपेशलम् । ऊर्जस्वि रूढाहङ्कारं युक्तोत्कर्षञ्च तत्त्रयम् ॥
—दण्डी, काव्याद०, २, २७५ ५. तुलनीय-दण्डी, काव्याद०, २, २७६ तथा भामह, काव्यालं०, ३, ५