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अलङ्कार-धारणा का विकास
[७३ (ङ) भरत की लक्षण-धारणा तथा अलङ्कार-धारणा के योग से निर्मित:-मोहोपमा, हेतूपमा, चटूपमा आदि में विभिन्न लक्षणों का तत्त्व मिश्रित है।
(च) नियमोपमा दण्डी की मौलिक कल्पना है। रूपक
दण्डी के रूपक का सामान्य स्वरूप भामह के रूपक के स्वरूप के समान है; किन्तु भरत एवं भामह के दो रूपक-प्रकारों के स्थान पर दण्डी ने बहुल भेदों की कल्पना कर ली है। उन भेदों के स्रोत का अन्वेषण वाञ्छनीय है।
'काव्यादर्श' में रूपक के निम्नलिखित भेद उल्लिखित हैं:-समस्तरूपक, असमस्तरूपक, समस्तव्यरतरूपक, सकलरूपक, अवयवरूपक, अवयविरूपक, ( एकाङ्गरूपक, द्वयङ्ग, व्यङ्ग आदि तथा युक्त, अयुक्त अवयवरूपक के उपभेद), विषमरूपक, सविशेषणरूपक, विरुद्धरूपक, हेतुरूपक, श्लिष्टरूपक, उपमारूपक, व्यतिरेकरूपक, आक्षेपरूपक, समाधानरूपक, रूपकरूपक तथा तत्त्वापह्नवरूपक । रूपक के इन भेदोपभेदों का निरूपण कर दण्डी ने यह मान्यता व्यक्त की है कि ये कुछ मुख्य भेद वर्णित हैं, रूपक के और भी अनेक भेद हो सकते हैं।'
समस्त, व्यस्त तथा समस्तव्यस्तरूपकः-दण्डी के द्वारा कल्पित रूपक के ये नवीन भेद हैं । जहाँ रूपक में आरोप के विषय एवं विषयी के वाचक पदों का समास हो जाने पर विभक्ति का लोप हो जाता है वहाँ समस्त रूपक होता है। पृथक्-पृथक् विभक्ति का सद्भाव रहने पर व्यस्तरूपक माना जाता है। इन दोनों के मेल से तीसरा भेद समस्तव्यस्तरूपक बनता है। इसमें समस्त पद भी रहते हैं; और पृथक् विभक्तियुक्त व्यस्त पद भी। रूपक के उक्त भेदों की कल्पना व्याकरण के नियमानुसार होने वाले पदों के समास के आधार पर की गयी है।
सकलरूपक तथा अवयवरूपकः-दण्डी के ये रूपक-भेद भामह के क्रमशः समस्तवस्तुविषय तथा एकदेशवित्तिरूपक से अभिन्न हैं। एक-अङ्ग, द्वयङ्ग, त्र्यङ्ग आदि अवयवरूपक के ही उपभेद हैं, जिनकी उत्पत्ति का बीज भामह के एकदेशवित्तिरूपक की सामान्य धारणा में ही निहित था। युक्त तथा अयुक्त भेद का आधार वस्तुओं के सम्बन्ध की योग्यता तथा अयोग्यता है।
१. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २, ६६-६६ २. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २, ६६-६८ .