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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
समान हो।"' इस दृष्टि से विचार करने पर समानोपमा में प्रस्तुत के प्रभाव की अभिवृद्धि की क्षमता नहीं होने के कारण उसका उपमा-प्रकार में परिगणन स्वीकार्य नहीं। इसीलिए परवर्ती आचार्यों ने इसकी सत्ता अस्वीकार कर दी है। उक्त उदाहरण में श्लेष अलङ्कार मानना ही उचित जान पड़ता है।
विरोधोपमाः- विरोधोपमा में विरोध का पर्यवसान सादृश्य में हो जाता है। दण्डी ने विरोध नामक पृथक अलङ्कार भी स्वीकार किया है, जिसमें आपाततः वणित विरोध अविरोध में पर्यवसित हो जाता है। विरोधोपमा में विरोध अलङ्कार का भी तत्त्व है और उपमा का भी। विरोध का उल्लेख भामह ने भी किया है। स्पष्ट है कि पूर्ववर्ती आचार्य भामह की विरोधालङ्कारधारणा से उपमा-धारणा को मिला कर दण्डी ने उपमा के इस नवीन भेद का सृजन कर लिया।
प्रतिषेधोपमाः-वैशिष्ट्य-प्रतिपादन के लिए उपमेय से उपमान के सादृश्य का निषेध प्रतिषेधोपमा में वाञ्छनीय माना गया है। इसकी कल्पना भामह के व्यतिरेक के आधार पर की गयी है। उपमान के सादृश्य-प्रतिषेध का उद्देश्य उससे उपमेय का उत्कर्ष-प्रतिपादन है। भामह ने उपमान से उपमेय के प्रकर्षसाधन में व्यतिरेक अलङ्कार स्वीकार किया था। दण्डी की प्रतिषेधोपमाधारणा उससे मिलती-जुलती है। इसलिए परवर्ती आचार्यों ने इसे उपमा-भेद नहीं मान कर व्यतिरेक में ही समाविष्ट कर लिया।
चटपमाः–उपमेय के लिए प्रिय वचन के प्रयोग के कारण इसे चटूपमा कहा गया है। इसके मूल में विशेषोक्ति अलङ्कार रहता है। उपमेय से उपमान में उत्कर्ष-हेतु के होने पर भी उत्कर्ष का प्रतिपादन इसमें नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि भामह के प्रय तथा विशेषोक्ति अलङ्कारों से तत्त्व-ग्रहण कर प्रस्तुत उपमा-भेद का स्वरूप-विन्यास हुआ है।
तत्त्वाख्यानोपमा.-तत्त्वाख्यानोपमा का स्वभाव निर्णयोपमा के समान है। अन्तर इतना है कि निर्णयोपमा में संशयात्मक ज्ञान की स्थिति में तत्त्व
१. रा० च० शुक्ल, त्रिवेणी, पृ० ६३ २. उपमानवतोऽर्थस्य यद्विशेषनिदर्शनम् । व्यतिरेकं तमिच्छन्ति विशेषापादनाद्यथा ॥
-भामह, काव्यालं० २, ७५ ३. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २, ३५, भामह, काव्यालं० ३ ५ तथा . ३, २३ से तुलना करें।