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अलंकारचिन्तामणि चतुर्थ परिच्छेदमें अर्थालंकारोंका निरूपण आया है। इस परिच्छेदमें तीन सौ पैंतालीस पद्य हैं। अन्य परिच्छेदोंके समान बीच-बीचमें गद्यांश भी आया है। परिच्छेदके आरम्भमें अलंकारको परिभाषा, गुण और अलंकारोंमें भेद, एवं अलंकारोंके भेदोंका कथन किया गया है । इस परिच्छेदमें उपमा, विनोक्ति, विरोधाभास, अर्थान्तरन्यास, विभावना, उक्ति-निमित्त, विशेषोक्ति, विषम, समचित्र, अधिक, अन्योन्य कारणमाला, एकावली, दीपक, व्याघात, माला, काव्यलिंग, अनुमान, यथासंख्य, अर्थापत्ति, सार, पर्याय, परिवृत्ति, समुच्चय, परिसंख्या, विकल्प, समाधि, प्रत्यनीक, विशेष, मीलन, सामान्य, संगति, तद्गुण, अतद्गुण, व्याजोक्ति, प्रतिपदोक्ति, स्वभावोक्ति, भाविक, उदात्त, व्याजस्तुति, उपमेयोपमा, समासोक्ति, पर्यायोक्ति, आक्षेप, परिकर, अनन्वय, अतिशयोक्ति, अप्रस्तुत-प्रशंसा, अनुक्त-निमित्त-विशेषोक्ति, परिणाम, सन्देह, रूपक, भ्रान्तिमान्, उल्लेख, स्मरण, अपह्नव, उत्प्रेक्षा, तुल्ययोगिता, दीपक, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा, व्यतिरेक, निदर्शना, श्लेष एवं सहोक्ति अलंकारोंके स्वरूप एवं उदाहरण निबद्ध है । इस प्रकार लगभग बहत्तर अर्थालंकारोंका विवेचन किया गया है ।
___सादृश्यमूलक अलंकारोंका निरूपण करते हुए साधर्म्य और सादृश्यका भी कथन आया है। सादृश्य भिन्न वस्तुओंमें धर्म अथवा धर्मोकी साधारणताके आधारपर होता है। सादृश्यमें कुछ धर्म साधारण होते हैं तथा कुछ असाधारण । धर्मोंकी साधारणतासे सामान्य तत्त्व बनता है तथा असाधारणतासे विशेष । सादृश्यमें सामान्य और विशेष ये दोनों तत्त्व पाये जाते हैं। अलंकारशास्त्रियों के मतमें सामान्य तत्त्वका दूसरा नाम साधर्म्य है और विशेष तत्त्वका दूसरा नाम वैधर्म्य । साधर्म्य और वैधर्म्य, इन दोनों के मिलनेसे सादृश्यका जन्म होता है। सादृश्यके लिए जो साधर्म्य अपेक्षित है उसमें धर्मोंकी संख्याका कोई विधान नहीं, परन्तु इतना अवश्य है कि इस साधर्म्यका क्षेत्र इतना विस्तृत न होना चाहिए कि वह वस्तुओंके समस्त धर्मको अपने अन्तर्गत कर ले। यतः इस अवस्थामें कोई ऐसा धर्म न रह जायेगा जिसके आधारपर वैधर्म्य हो सके । वैधर्म्य तत्त्वका सर्वथा लोप होनेके कारण वह सादृश्य भी सम्भव नहीं, जिसके लिए साधर्म्यके अतिरिक्त वैधर्म्य तत्त्वकी भी अपेक्षा है। वैधर्म्य तत्त्वसे रहित इस अवस्थाको हम ताद्रूप्य कहेंगे । ताद्प्य, साधर्म्यकी परम विस्तृत अवस्था है । इस अवस्थामें वस्तुओंके समस्त धर्म, साधर्म्यकी परिधिमें समाविष्ट हो जाते हैं ।
सादृश्यमें हमारी दृष्टि एक वस्तुके दूसरी वस्तुसे सम्बन्धपर केन्द्रित रहती है । साधर्म्यमें यह दोनों वस्तुओंके एक धर्मके सम्बन्धपर केन्द्रित रहती है। इस प्रकार सादृश्यमें उपमेय अनुयोगी होता है तथा उपमान प्रतियोगी। साधर्म्य में उपमेय तथा उपमान दोनों अनुयोगी होते हैं और साधारण धर्म प्रतियोगी।
कुछ विद्वान् सादृश्य और साधर्म्यको एक मानते हैं। पर अजितसेनने सादृश्य और साधर्म्यको पृथक् माना है। इनकी दृष्टिमें सादृश्यका चित्र साधर्म्यकी अपेक्षा विस्तृत है । साधर्म्यमें हमें वस्तुओं में केवल साधारण धर्म दिखलाई देते हैं, पर सादृश्यमें
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