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.प्रस्तावना
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में श्रीबन्ध, सर्वतोभद्र, अर्द्धभ्रमक, तिलकबन्ध, मुरजबन्ध और एकाक्षर मुरजबन्ध प्रधान हैं। आयुधबन्धोंमें खड्गबन्ध, मुसलबन्ध, धनुर्बन्ध, शरबन्ध, त्रिशूलबन्ध, शक्तिबन्ध, हलबन्ध और महाचक्रबन्धकी गणना की गयी है। विष्णुके आयुधबन्धोंमें शंखबन्ध, चक्रबन्ध, गदाबन्ध और पद्मबन्ध प्रधान हैं। प्रकीर्णकबन्धों में सर्वतोमुखबन्ध, कूपबन्ध, प्रेममालाबन्ध, मालाबन्ध, सूर्यबन्ध, चन्द्रबन्ध, शिविकाबन्ध, दर्पणबन्ध, छत्रबन्ध, मेरुबन्ध, गजबन्ध, नागबन्ध, कमण्डलुबन्ध, शरयन्त्रबन्ध एवं ढालबन्धकी गणना की गयी है। इस परिच्छेदमें चित्रालंकारसम्बन्धी नियमन महत्त्वपूर्ण हैं।
तृतीय परिच्छेदमें चित्रालंकारके अतिरिक्त शब्दालंकारके अन्य भेद, वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमकका सोदाहरण स्वरूप-विश्लेषण किया गया है। इस परिच्छेदमें इकतालीस पद्य हैं। आरम्भके दो पद्योंमें वक्रोक्तिका सोदाहरण निर्देश हुआ है। अजितसेनने लिखा है कि जिस रचनाविशेषमें शब्द और अर्थकी विशेषताके कारण प्राकरणिक अर्थसे भिन्न, कुटलाभिप्रायसे अर्थान्तर कहा जाय, उसे विद्वानों ने वक्रोक्ति अलंकार बतलाया है। वक्रोक्तिके मूलभूत साधन 'श्लेष' और 'काकु'का भी समावेश किया गया है। अनुप्रासके लक्षणस्वरूपके अनन्तर लाटानुप्रास और छेकानुप्रासके सोदाहरण लक्षण दिये गये हैं । वृत्त्यनुप्रासका विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है ।
यमकालंकारके स्वरूपनिर्धारणके पश्चात् उसके प्रमुख ग्यारह भेद बतलाये गये हैं । और इन भेदोंका सोदाहरण स्वरूप निर्धारित किया गया है
१. प्रथम और द्वितीय पादकी समानता होनेसे मुख यमक होता है । २. प्रथम और तृतीय पादमें समानता होनेसे संदंश यमक होता है । ३. प्रथम और चतुर्थ पाद में समानता होनेसे आवृत्ति यमक होता है। ४. द्वितीय और तृतीय पादमें समानता होनेसे गर्भयमक होता है । ५. द्वितीय और चतुर्थ पादमें समानता होनेसे संदष्टक यमक होता है। ६. तृतीय और चतुर्थ पादमें समानता होनेसे पुच्छयमक होता है। ७. चारों चरणोंके एक समान होनेसे पंक्तियमक होता है।
८. प्रथम और चतुर्थ तथा द्वितीय और तृतीयपाद एक समान हों तो परिवृत्ति यमक होता है।
९. प्रथम और द्वितीय तथा तृतीय और चतुर्थ पाद एक समान हों तो युग्मक यमक होता है।
१०. श्लोकका पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध एक समान होनेसे समुद्गक यमक होता है।
११. एक ही श्लोकके दो बार पढ़े जाने पर महायमक होता है। __ सामान्यतः पादांश, पदांश और वर्णों की आवृत्तिकी अपेक्षासे यमकालंकारके अनेक भेद हैं। अजितसेनने यमकालंकारके सुन्दर उदाहरण संगृहीत किये हैं। यह परिच्छेद यमकालंकारकी दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। [३]
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