Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 87.88 पञ्चमो उद्देसओ पंचम उद्देशक __शुद्ध आहार की एषणा 87. जमिण विरूवरूवेहि सत्थेहि लोगस्स कम्मसमारंभा कज्जति / तं जहा-अप्पणो से पुत्ताणं धूताणं सुण्हाणं गातीणं धातीणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आदेसाए पुढो पहेणाए सामासाए पातरासाए संणिहिसंणिचयो कज्जति इहमेगेसि माणवाणं भोयणाए। 88. समुठ्ठिते अणगारे आरिए' आरियपणे आरियदंसी अयं संधी ति अदक्खु / से जाइए, णाइआवए, न समणुजाणए / सव्वामगंध परिणाय णिरामगंधे परिवए। अदिस्समाणे कय-विक्कएसु / से ण किणे, ण किणावए, किणंतं ण समणुजाणए। से भिक्खू कालण्णे बालण्णे मातण्णे खेयण्णे खणयण्णे विणयण्णे समयण्णे भावणे परिग्गहं अममायमाणे कालेणुछाई अपडिण्णे / दुहतो छित्ता णियाइ। 87. असंयमी पुरुष अनेक प्रकार के शस्त्रों द्वारा लोक के लिए (अपने एवं दूसरों के लिए) कर्म समारंभ (पचन-पाचन आदि क्रियाएँ) करते हैं। जैसे अपने लिए, पुत्र, पुत्री, पुत्र-वधू, ज्ञातिजन, धाय, राजा, दास-दासी, कर्मचारी, कर्मचारिणी, पाहुने- मेहमान आदि के लिए तथा विविध लोगों को देने के लिए एवं सायंकालीन तथा प्रातःकालीन भोजन के लिए। इस प्रकार वे कुछ मनुष्यों के भोजन के लिए सन्निधि (दूध-दही आदि पदार्थों का संग्रह) और सन्निचय (चीनी-धृत आदि पदार्थों का संग्रह) करते रहते हैं। 88. संयम-साधना में तत्पर हुआ आर्य, आर्यप्रज्ञ और आर्यदर्शी अनगार प्रत्येक क्रिया उचित समय पर ही करता है / वह 'यह शिक्षा का समय-संधि (अवसर) है' यह देखकर (भिक्षा के लिए जाये) वह सदोष आहार को स्वयं ग्रहण न करे, न दूसरों से ग्रहण करवाए तथा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन नहीं करे / वह (अनगार) सब प्रकार के प्रामगंध (आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार) का परिवर्जन करता हया निर्दोष भोजन के लिए परिव्रजन-भिक्षाचरी करे। वह वस्तू के क्रय-विक्रय में संलग्न न हो / न स्वयं क्रय करे, न दूसरों से क्रय करवाए और न क्रय करने वाले का अनुमोदन करे। वह (उक्त प्राचार का पालन करने वाला) भिक्षु कालज्ञ है, बलज्ञ है, मात्रज्ञ है, क्षेत्रज्ञ है, क्षणज्ञ है, विनयज्ञ है, समयज्ञ है, भावज्ञ है। परिग्रह पर ममत्व नहीं 1. चणि में इसके स्थान पर 'आयरिए, आयरियपणे, आयरियदिछी'-पाठ भी है / जिसका प्राशय है प्राचारवान्, प्राचा:प्रज्ञ तथा प्राचार्य की दृष्टि के अनुसार व्यवहार करने वाला। . . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org