Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अष्टम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 222 222. जिस भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाए कि 'मैं अकेला हूँ, मेरा * कोई नहीं है, और न मैं किसी का हूँ', वह अपनी आत्मा को एकाकी ही समझे। (इस प्रकार) लाघव का सर्वतोमुखी विचार करता हुआ (वह सहाय-विमोक्ष करे) ऐसा करने से) उसे (एकत्व-अनप्रेक्षा का) तप सहज में प्राप्त हो जाता है। भगवान् ने इसका (सहाय-विमोक्ष के सन्दर्भ में एकत्वानुप्रेक्षा के तत्त्व का) जिस रूप में प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (इसमें निहित ) सम्यक्त्व (सत्य) या समत्व को सम्यक् प्रकार से जानकर क्रियान्वित करे। विवेचन - पर सहाय विमोक्ष भी प्रात्मा के पूर्ण विकास एवं पूर्ण स्वातंत्र्य के लिए आवश्यक है। प्रात्मा की पूर्ण स्वतन्त्रता भी तभी सिद्ध हो सकती है, जब वह उपकरण, आहार, शरीर, संघ तथा सहायक आदि से भी निरपेक्ष होकर एकमात्र प्रात्मावलम्बी बनकर जीवन-यापन करे / समाधि-मरण की तैयारी के लिए सहायक-विमोक्ष भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उत्तराध्ययन सूत्र (अ० 29) में इससे सम्बन्धित वणित अप्रतिबद्धता, संभोग-प्रत्याख्यान, उपधि-प्रत्याख्यान, आहार-प्रत्याख्यान, शरीर-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान एवं सहाय-प्रत्याख्यान मादि आवश्यक विषय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं मननीय हैं।' सहाय-विमोम से आध्यात्मिक लाम-उत्तराध्ययन सूत्र में सहाय-प्रत्याख्यान से लाभ बताते हुए कहा है-"सहाय-प्रत्याख्यान से जीवात्मा एकीभाव को प्राप्त करता है, एकीभाव से प्रोत-प्रोत साधक एकत्व भावना करता हुआ बहुत कम बोलता है, उसके झंझट बहत कम हो जाते हैं, कलह भी अल्प हो जाते हैं, कषाय भी कम हो जाते हैं, तू-तू, मैं-मैं भी समाप्तप्राय हो जाती है, उसके जीवन में संयम और संवर प्रचुर मात्रा में आ जाते हैं, वह आत्मसमाहित हो जाता है।" सहाय-विमोक्ष साधक की भी यही स्थिति होती है, जिसका शास्त्रकार ने निरूपण किया है--"एगे अहमंसि......"एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा।" इसका तात्पर्य यह है कि उस सहाय-विमोक्षक भिक्षु को यह अनुभव हो जाता है कि मैं अकेला हूँ, संसार-परिभ्रमण करते हुए मेरा पारमार्थिक उपकारकर्ता आत्मा के सिवाय कोई दूसरा नहीं हैं और न ही मैं किसी दूसरे का दुःख-निवारण करने में (निश्चयदृष्टि से) समर्थ हूँ, इसलिए मैं किसी अन्य का नहीं हैं। सभी प्राणी स्वकृत-कर्मों का फल भोगते हैं। इस प्रकार वह भिक्ष अन्तरात्मा को सम्यक प्रकार से एकाकी समझे / नरकादि दुःखों से रक्षा करने वाला शरणभूत आत्मा के 1. उत्तराध्ययन सूत्र अ० 29, बोल 30, 34, 35, 38, 39, 40 देखिये। 2. 'सहायपच्चखाणं जीवे एगीमाव जगयइ। एगीभावभूए य ग जोवे अप्पसद्दे, अप्पसंझे, अप्पकलहे, __ अप्पकसाए, अप्पतुमंतुमे, संजमबहुले, संवरबहुले समाहिए यावि भवइ / ' --उत्तरा० अ० 29, बोल 39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org