Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 43 प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 348 होने से) प्राज्ञ भिक्षु की वाचना, पृच्छना, पर्यटना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथारूप स्वाध्याय प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। अतः इस प्रकार जानकर वह भिक्षु पूर्वोक्त प्रकार की मांस प्रधानादि संयम-खण्डितकरी पूर्व संखडि या पश्चात् संखडि में संखडि की प्रतिज्ञा से जाने का मन में संकल्प न करे। वह भिक्षु या भिक्षुणी, भिक्षा के लिए गृहस्थ के यहां प्रवेश करते समय यह जाने कि नववधू के प्रवेश आदि के उपलक्ष्य में भोज हो रहा है, उन भोजों से भिक्षाचर भोजन लाते दिखायी दे रहे हैं, मार्ग में बहुत-से प्राणी यावत् मकड़ी का जाला भी नहीं है / तथा वहाँ बहुतसे भिक्षु-ब्राह्मणादि भी नहीं आए हैं, न आएंगे और न आ रहे हैं, लोगों की भीड़ भी बहुत कम है। वहां (मांसादि दोष-परिहार-समर्थ) प्राज्ञ (-अपवाद मार्ग में) निर्गमन-प्रवेश कर सकता है, तथा वहाँ प्राज्ञ साधु के वाचना-पृच्छना आदि धर्मानुयोग चिन्तन में कोई बाधा उपस्थित नहीं होगी, एसा जान लेने पर उस प्रकार की पूर्व संखडि या पश्चात् संखडि में संखडि की प्रतिज्ञा से जाने का विचार कर सकता है। विवेचन-मांसादि-प्रधान संखडि में जाने का निषेध और विधान-जो भिक्षु तीन करण तीन योग मे हिंसा का त्यागी है, जो एकेन्द्रिय जीवों की भी रक्षा के लिए प्रयलशील है, उसके लिए मांसादि-प्रधान संखडि में तो क्या, किसी भी संखडि में चलकर जाना सर्वथा निषिद्ध बताया गया है। यही कारण है कि प्रस्तुत सूत्र के पूर्वार्द्ध में मार्ग में स्थितएकेन्द्रियादि जीवों की विराधना के कारण, भिक्षाचरों की अत्यन्त भीड़ के कारण तथा सारे रास्ते में लोगों के जमघट होने से तथा नृत्य-गीत-वाद्य आदि के कोलाहल के कारण स्वाध्याय-प्रवृत्ति में बाधा की सम्भावना से उस संखडि में जाने का निषेध किया गया है। किन्तु सूत्र के उत्तराद्धं में पूर्वोक्त बाधक कारण न हों तो शास्त्रकार ने उस संखडि में जाने का विधान भी किया है / कहाँ तो संखडि में जाने पर कठोर प्रतिबन्ध और कहां मांसादिप्रधान संखडि में जाने का विधान ? इस विकट प्रश्न पर चिन्तन करके वृत्तिकार इसका रहस्य खोलते हुए कहते हैं...अब अपवाद-(सूत्र) कहते हैं-कोई भिक्षु मार्ग में चलने से अत्यन्त थक गया हो, अशक्त हो गया हो, आगे चलने की शक्ति न रह गयी हो, लम्बी बीमारी से अभी उठा ही हो, अथवा दीर्घ तप के कारण कृश हो गया हो, अथवा कई दिनों से ऊनोदरी चल रही हो, या भोज्य पदार्थ आगे मिलना दुर्लभ हो, संखडिवाले ग्राम में ठहरने के सिवाय कोई चारा न हो, गाँव में और किसी घर में उस दिन भोजन न बना हो, ऐसी विकट परिस्थिति में पूर्वोक्त बाधक कारण न हों तो उस संखडि को अल्पदोषयुक्त मानकर वहाँ जाए, बशर्ते कि उस संखडि में मांस वगैरह पहले ही पका या बना लिया या दे दिया गया हो, उस समय निरामिष भोजन ही वहाँ प्रस्तुत हो। इस प्रकार पूर्वोक्त कारणों में से कोई गाढ़ कारण 1. टीका पत्र 334 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org