Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध साधु उनका उत्तर न दें। उन प्रातिपथिकों से भी इस प्रकार के प्रश्न न पूछे। उनके द्वारा न पूछे जाने पर भी वह ऐसी बातें न करे / अपितु संयमपूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करता रहे / विवेचन--विविध विषम मार्ग और साधु का कर्तव्य--इन पाँच सूत्रों में साधु के विहार में आने वाले गमन और व्यवहार दोनों दृष्टियों से विषम मार्ग से सावधान करने के लिए सूचनाएं दी गई हैं, साथ ही साधु को ऐसे ही विषम एवं संकटापन्न मार्ग से जाना ही पड़ जाए और सम्भाव्य संकट आ ही पड़े तो क्या करना चाहिए? तो उसका समाधान भी बता दिया है / अन्य निरापद मार्ग मिल जाए तो वैसे संकटास्पद मार्ग से जाने का निषेध किया है। ऐसे निषेध्य मार्ग मुख्यतया दो प्रकार के है--(१) ऊंचे नीचे, टेढ़े-मेढ़े, ऊबड़-खाबड़ मार्ग, (2) ऐसे मार्ग, जहाँ सेनाओं के पड़ाव हों, रथ और गाड़ियाँ पड़ी हों, धान्य के ढेर भी पड़े हों प्रथम मार्ग से अनिवार्य कारणवश जाना पड़े तो वनस्पति का अथवा किसी पथिक के हाथ का सहारा लेने का विधान किया है / चूर्णिकार इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करते हैं कि जिनकल्पिक मुनि प्रातिपथिक के हाथ की याचना करके उतरते हैं, जब कि स्थविरकल्पी वृक्षादि का सहारा लेकर। दूसरे मार्ग से जाने में सैनिकों द्वारा कुशंका-वश मारपीट की संभावना है, उसे समभावनापूर्वक सहने के सिवाय कोई चारा नहीं। यद्यपि साधु उन्हें भी पहले समझाने और उनका समाधान करने का प्रयत्न करेगा ही। अन्त में सूत्र 502 में साधु से साधु धर्म से असम्बद्ध प्रश्न पूछे जाने पर उत्तर न देने का विधान किया गया है / यद्यपि साधु से कोई जिज्ञासु व्यक्ति धार्मिक या आध्यात्मिक प्रश्न पूछे तो उसका उत्तर देना उसका कर्त्तव्य है, किन्तु निरर्थक प्रश्नों के उत्तर देना आवश्यक नहीं / वे अनर्थकारी भी हो सकते हैं / अतः वह व्यर्थ की बातों का न तो उत्तर दे न ही वह स्वयं किसी से पूछे / ऐसी प्रश्नोत्तरी विकथा, वितण्डा, निन्दा और कलह का रूप भी ले सकती है। इसके अतिरिक्त कई पथिक साधुओं से अपना, देश का तथा वर्ष का भविष्य भी पूछा करते हैं, साधु को न तो ज्ञानी होने का प्रदर्शन करना चाहिए, न ही भविष्य बताना चाहिए। 'वप्पाणि' आदि पदों का प्रासंगिक अर्थबप्पाणि उन्नत भू भाग, टेकरे। फलिहाणि= परिखाएं--खाइयां या नगर के चारों ओर बनी हुई नहरें पागाराणि-दुर्ग या किले / तोरणाणि--- नगर के मुख्य द्वार, अग्गलाणि -अर्गलाएं-आगल, अग्गलणसगाणि-आगल फंसाने के स्थान / गड्ढाओ-गर्त-गड्ढे / दरोओ=गुफाए या भू गर्भ मार्ग ! गुच्छाणि=पत्तों का समूह, या फलों के गुच्छे, गुम्माणि =झाड़ियां. गहणाणि=वृक्ष-लताओं के झुन्ड या वृक्षों के कोटर / पाडिपहियासामने से आनेवाले पथिक, अभिचारियं-गुप्तचर का कार्य, जासूसी, आगसह खींचो या 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 381 के आधार पर, (ख) आचा० चूणि मूल पाठ टिप्पणी पृ० 182 / 2. व्यवहार सूत्र 4, में 'अभिनिचारिय' शब्द है। वृत्तिकार मलयगिरिसूरि ने 'अभिनिचारिका' का अर्थ किया है-सूत्रानुसार सामुदानिक भिक्षा चारिका करना। -व्यव० उ०४ वृति पत्र 60-62 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org