Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 348 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु तस्कन्ध 703. यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर पर तेल, घी आदि चुपड़े, मसले या मालिश करे तो साधु न तो उसे मन से ही चाहे न वचन और काया से कराए। 704. यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर पर लोध, कर्क, चूर्ण या वणं का उबटन करे, लेपन करे तो साधु न तो उसे मन से ही चाहे और न वचन और काया से कराए। 705. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शरीर को प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से प्रक्षालन करे या अच्छी तरह धोए तो साधु न तो उसे मन से चाहे, और न वचन और काया से कराए। 706. कदाचित् कोई गृहस्थ मुनि के शरीर पर किसी प्रकार के विशिष्ट विलेपन का एक बार लेप करे या बार-बार लेप करे तो साधु न तो उसे मन से चाहे और न उसे वचन और काया से कराए। 707. यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर को किसी प्रकार के धूप से धपित करे या प्रधपित करे तो साधु न तो उसे मन से चाहे और न वचन और काया में कराए। __ [यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर पर फूंक मारकर स्पर्श करे या रंगे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से उसे कराए। विवेचन--काय-परिकर्मरूप परक्रिया का सर्वथा निषेध--सू. 701 से 707 तक 7 सूत्रों में गृहस्थ द्वारा विविध काय-परिकर्म रूप परिचर्या लेने का निषेध किया गया है। सारा ही विवेचन पाद-परिकमंरूप परक्रिया के समान है। गृहस्थ से ऐसी काय-परिकर्म रूप परिचर्या कराने में पूर्ववत् दोषों की सम्भावनाएं हैं। सण-परिकर्म रूप परक्रिया निषेध : 708 से से परो कायंसि वणं आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज बा, णो तं सातिए णो तं नियमे। 706. से से परो कार्यसि वणं संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, जो तं सातिए णो तं नियमे। 710. से से परो कार्यसि वणं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज' वा, णो तं सातिए णो तं नियमे / 711 से से परो कायंसि वणं लोग वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोढेज्ज वा उवलेज्ज' वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / 712. से से परो कार्यसि वणं सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे / 1. 'भिलिगेज्ज' के बदले 'भिलं गेज्ज' पाठान्तर है। 2. इसके बदले 'लोहेण' पाठान्तर है। 3. 'उल्लो ज्ज' के बदले 'उल्लोटेज्ज' पाठान्तर है। 4. 'पधोवेज्ज' के बदले पाठान्तर हैं-पहोएज्ज, 'पधोएज्ज' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org